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मेरी जीवनगाथा
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कुछ दिन बाद एक अपूर्व घटना हुई और वह है स्थानीय समस्त मन्दिरोंकी एक सामूहिक संगठित व्यवस्था । मुझे जहाँ तक विश्वास है कि ऐसी व्यवस्था भारतवर्षमें जैनमन्दिरोंके द्रव्यकी कहीं भी नही है। वहाँपर अकस्मात् पण्डिता चन्दाबाईजी, जो कि जैन समाजके प्रसिद्ध जीवोंमेंसे हैं, पधारी। बाईजीके विषयमें यद्यपि मैं पहले कुछ लिख चुका हूँ, फिर भी उनके जीवनकी विशेषताएँ पुनः कुछ लिखनेको प्रेरित करती हैं। इस समय आप महिला समाजमें अद्वितीय हैं। आपका त्याग प्रशस्त है। आप सप्तम प्रतिमा पालती हैं। प्रतिवर्ष एक मास किसी धर्मतीर्थपर जाती हैं या दो मास मुनिसमागममें रहती हैं। मैं तो जब तक ईसरी रहा तब तक प्रायः प्रतिवर्ष दो मास तक वहाँ रहती रहीं। एक दो अतिथियोंको भोजन देकर आपका भोजन होता है। आपका जो बाला-विश्राम आरामें है वह सर्व विदित है। आपका घराना अत्यन्त प्रसिद्ध है। वर्तमानमें श्रीयुत रईस निर्मलकुमार चक्रेश्वरकुमारजी प्रसिद्ध हैं। ये दोनों आपकी जेठानीके पुत्र हैं। आपके जेठ स्वर्गीय बाबू देवकुमारजी थे, जिनका आरामें बड़ा भारी सरस्वतीभवन है। बनारसमें प्रभुघाट पर आप ही के मन्दिरके नीचे स्याद्वाद विद्यालय है, जिसमें आचार्य परीक्षा तक पठन-पाठन होता है। दो हजार रुपये मासिकसे अधिक उसका व्यय है। आज तक उसका ध्रौव्य फण्ड एक लाख भी नहीं हुआ। यह हम लोगोंकी गुणग्राहकताका परिचय है। स्याद्वाद विद्यालयको जो मकान है वह वर्तमान युगमें चार लाखमें भी नहीं बनेगा। यह बात चन्दाबाईके सम्बन्धसे आ गई।
हाँ, तो सौभाग्यवश उक्त बाईजीका जबलपुरमें शुभागमन हुआ। जबलपुरकी समाजने योग्य रीतिसे आपका सत्कारादि किया तथा शास्त्रप्रवचन सुना। एक दिन आपका व्याख्यान भी हुआ, जिसमें आपने मन्दिरोंकी द्रव्यविषयक व्यवस्था पर बहुत कुछ कहा। आपका व्याख्यान इतना प्रभावक रहा कि जनता उमड़ पड़ी। श्री पण्डित राजेन्द्रकुमारजी मथुराने भी इस विषयमें पहले बहुत कोशिश की थी। प्रायः बीजारोपण हो चुका था, परन्तु श्री चन्दाबाईजीके प्रवचनामृत भाषणसे आज वह अंकुरित हो गया। नियमानुसार मन्त्री, कोषाध्यक्ष आदि सब अधिकारी चुने गये। इस प्रकार यह महान् कार्य किया तो अन्य लोगोंने, पर हमको फोकटमें यश मिल गया।
चातुर्मास बड़ी शान्ति और आनन्दसे व्यतीत हुआ। इसीके बीच यहाँ विद्वत्परिषद्का नैमित्तिक अधिवेशन भी हो गया, जिसमें पं. बंशीधरजी, पं.
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