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________________ जबलपुरमें गुरुकुल 383 चन्दा देना स्वीकार किया। जिसके फलस्वरूप श्री गुलाबबागमें गुरुकुल की स्थापना हो गई। लाला हरिश्चन्द्रजी, जो कि सहारनपुरके ही रहनेवाले हैं; इस गुरुकुलका संचालन करते हैं। आप बड़े निःस्वार्थ तथा सेवाभावी पुरुष हैं। बालब्रह्मचारी हैं। दो वर्ष तक सागर विद्यालय में भी ऑननेरी सुपरवाइजरका काम किया। आपके प्रबन्धसे सम्पूर्ण छात्रमण्डली प्रसन्न रहती थी। आजकल आप षट्रसोंके त्यागी हैं तथा सब प्रकारके फलोंका त्याग कर रक्खा है। केवल अनाज और पानी ही आपका भोजन है। फिर भी शक्ति क्षीण नहीं। आप उदार भी बहुत हैं। हजारों रुपये कमाते हैं और परोपकारमें व्यय कर देते हैं। आपके संचालकत्वमें सहारनपुरका गुरुकुल अच्छी उन्नति कर रहा है। मुझे विद्यायतन देखकर बहुत हर्ष होता है। वास्तवमें विद्या ही मनुष्यके कल्याणकी जननी है। और खासकर वह विद्या जो कि स्वपरभेद-विज्ञानकी उत्पादिका है। जबलपुरमें गुरुकुल जबलपुरमें एक विशेष बात यह हुई कि वहाँ दिगम्बर जैन परिषद्के अधिवेशनका भी आयोजन हुआ। प्रायः आठ हजार जनता एकत्र हो गई। परिषद्में इतना जनसमुदाय कभी नहीं हुआ होगा। साहु शान्तिप्रसादजी उसके अध्यक्ष थे। सोलह घोड़ोंकी बग्घीमें उनका स्वागत किया गया। बहुत ही शानदार उत्सव हुआ। समयकी परिस्थितिके अनुसार सुधार भी बहुत अंशोमें हुआ। श्रीमती लक्ष्मी रमादेवी स्त्रीसमाजकी सभानेत्री थीं। आपके विचार भी स्त्री समाजके सुधारके पक्षमें है। आप पाश्चात्य विद्यामें ग्रेजुएट हैं। धार्मिक भावनाएँ भी आपकी उच्चतम हैं। परिषद्का कार्य सब प्रकारसे उत्तम रहा। यों तो संसारके कार्यों में दृष्टिकोणकी अपेक्षा कुछ-न-कुछ त्रुटि रहती ही है। तीन दिन बाद आप डालमियानगर को प्रस्थान कर गये। आप बहुत ही उदार प्रकृतिके हैं। चलते समय मुझे पाँच हजार रुपया दे गये और यह कह गये कि आपको बालकोंकी ओरसे दानके लिये हैं। मैंने जबलपुर पंचायतसे प्रवचनके समय यह निवेदन किया कि यदि आप दस हजार और मिला देवें तो पन्द्रह हजार रुपयाका स्थायी फण्ड हो जावे और उसके ब्याजसे एक पण्डित सर्वदा प्रवचनके लिये रह जावें। लोगोंने सहर्ष स्वीकारता दे दी ओर एक विद्वान् भी उस कार्य के लिये रख लिया गया। इस तरह जबलपुरमें अपूर्व उत्सव हो गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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