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________________ मार्गमें 369 बृहत्कुण्ड भरा हुआ है, जो पहाड़ीकी तलहटीसे निकला हैं। यदि कोई पर्वतकी परिक्रमा करना चाहे तो दो घण्टामें कर सकता है और डेढ़ घन्टामें वन्दना कर सकता है। पहाड़पर श्रीप्यारकुँवरजी सेठानी (धर्मपत्नी सेठ कल्याणमलजी इन्दौर) ने एक उत्तम कुटी बनवा दी है, जिसके अन्दर एक देशी पत्थरका बडा भारी चबूतरा बनवाया है, जिसमें तप करते हुए ऋषियोंके चित्र अंकित है, जिन्हें देखकर चित्तमें शान्ति आ जाती है।। क्षेत्रके विषयमें विशेष वर्णन पीछे लिखा जा चुका है। इसी द्रोणगिरिमें एक रामबगस फौजदार था। आपका प्राकृत और संस्कृतमें अच्छा अभ्यास था। आप वैद्य भी थे। आपके बनाये पच्चीसों भजन हैं। आपके द्वारा क्षेत्रकी शोभा थी। आपका प्रवचन भी अच्छा होता था। आपके स्वर्गारोहरणके बाद आपके सुपुत्र कमलापति भी क्षेत्रका कार्य संभालते रहे। आपका भी स्वर्गवास हो गया। वर्तमानमें आपके दो सुपुत्र हैं। एकका नाम मोतीलाल और दूसरेका नाम पन्नालाल है। आप लोग भी गृहस्थीका भार संभालते हुए जातिसुधारमें बहुत भाग लेते हैं, परन्तु यह ऐसा प्रान्त है कि विधाता भी साक्षात् आ जावे तो यहाँके लोग उसे भी चक्रमें डाल देवें। संसारमें बालविवाहकी प्रथाका अन्त हो गया, परन्तु यहाँ पर यह रूढ़ि अपवाद रूपसे है। यहाँ श्री पं. गोरेलालजी शास्त्री और इन दोनों महानुभावोंने इस प्रथाका अन्त करनेके लिए अत्यन्त प्रयत्न किया, परन्तु कर नहीं सके। जलबिहार में ५००) तक लगा देवेंगे, परन्तु प्रसन्नतामें विद्यादानमें पाँच रुपया न देवेंगे। यहाँ अधिकतर लोग जैनधर्मके श्रद्धालु हैं, परन्तु लोग उन्हें अपनाते नहीं। न जाने लोगोंने जैनधर्मको क्या समझ रखा है। पहले तो वह किसी व्यक्तिविशेषका धर्म नहीं। जो आत्मा मोहादिसे छूट जावे उसीमें उसका विकास हो जाता है। जैसे सूर्यका विकास किसी जाति की अपेक्षा प्रकाश नही करता। एवं धर्म किसी जातिविशेषकी पैतृक सम्पत्ति नहीं। जो भी आत्मा विपरीत अभिप्रायकी मलिनतासे कलंकित न हो उसी आत्मामें इस धर्मकी उत्पत्ति हो जाती है। हम लोगोंने जैनधर्मकी व्यापकताका घात कर रक्खा है। यह भी एक कथन शैली है कि धर्म तो प्रत्येक आत्मामें शक्तिरूपसे विद्यमान रहता है। जब जिसके विकासमें आ जावें तभी धर्मात्मा बन जाता है। कहनेका तात्पर्य यह है कि यदि कोई जैनधर्मके अनुकूल प्रवृत्ति करे तो इसे दृढ़ करना चाहिए। इस प्रान्तमें ब्रह्मचारी चिदानन्दजीने अधिक जागृति की है। यहाँसे चलकर हम गोरखपुर होते हुए घुवारा आये। यह ग्राम बहुत बड़ा है। पाँच Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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