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गिरीडीहका चातुर्मास
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और मदिरासे भरी रहती हैं, जहाँ ताकतवर औषधिमें प्रायः मछलीका तेल दिया जाता है और जहाँ अंडोंके स्वरसका योग औषधियोंके साथ किया जाता है। आपके सामने तो बनी हुई स्वच्छ दवाई आती है, इससे कुछ पता नहीं चलता, पर किसी डाक्टर से उसके उपादान और बनानेकी प्रक्रियाको पूछो और वह सच-सच बतलावे तो रोमांच उठ आवें, शरीर सिहर जावे ! होटलोंमें खावें, जहाँ कि उच्छिष्टका कोई विचार नहीं रहता.... इन सब कार्योंसे लोकमर्यादा बनी रहती है, पर एक भंगीके पैसेसे बनी हुई धर्मशालामें ठहरनेसे लोकमर्यादा नष्ट हुई जाती है, याने यहाँकी पृथ्वी ही अशुद्ध हो गई।
बहुत कहाँ तक कहें उस धर्मशालामें ठहरना किसीने स्वीकार नहीं किया। अन्तमें एक ग्राममें जाकर एक कृषकके मकानमें ठहर गये। कृषक बहुत ही उत्तम प्रकृतिका था। उसने आँगन खाली कर दिया तथा एक मकान भी। हम लोगोंने आनन्दसे रात्रि बिताई। प्रातःकाल सरिया (हजारीबागरोड) आ गये। यहाँ पर अपने परिचित भौंरीलालजी सेठीके यहाँ ठहरे। बहुत ही प्रेमसे रहे। यहाँसे दिनमें फिर ईसरी पहुँच गये।
सेठ कमलापति, तपसी स्वामी दामोदर, सोहनलालजी तथा बाबू गोविन्दलालजी, जो पुराने साथी थे, आनन्दसे मिल गये। श्रीयुत बाबू धन्यकुमारजी आरावाले भी मिल गये । आपकी धर्मपत्नीका हमसे बहुत ही स्नेह रहता है। श्रीमक्खनलालजी सिंघई छपरावाले भी यहाँ धर्मसाधनके लिए आये। आपके तीन सुपुत्र हैं, घरके सम्पन्न हैं; शास्त्र सुननेका आपको बहुत ही प्रेम है, सुबोध भी हैं।
इस प्रकार यहाँ आनन्दसे दिन बीतने लगे। चार मासके बाद गिरीडीहमें चातुर्मासके लिए चले गये। मदन बाबू बड़े प्रेमसे ले गये। पहले दिन चिरकी रहे। यहाँसे गिरिराजकी यात्रा कर फिर यहीं आ गये। यहाँसे बराकट गये। यहाँ पर श्वेताम्बर धर्मशाला बहुत सुन्दर है। बीचमें मन्दिर है। उसीमें सानन्द रात्रि व्यतीत की। प्रातःकाल चलकर गिरीडीह पहुँच गये। यहाँ पर सुखसे काल बीतने लगा। बाबा राधाकृष्णके बँगलामें ठहरे। यहाँ पर दो मन्दिर हैं। एक तेरापंथी आम्नायका है। उसमें श्रीब्रह्मचारी खेचरीदासजी पूजन करते हैं। दूसरा मन्दिर बाबू रामचन्द्र मदनचन्द्रजीका है। यह मन्दिर बहुत ही सुन्दर है। मन्दिरके नीचे एक महती धर्मशाला है, दो कूप हैं। बहुत ही निर्मल स्थान है। यहाँके प्रत्येक गृहस्थ स्नेही हैं।
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