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________________ मेरी जीवनगाथा 360 यह जो हम प्रवृत्ति कर रहे हैं, धर्म नहीं है, मन, वचन, कायके शुभ व्यापार हैं। जहाँ मनमें शुभ चिन्तन होता है, कायकी चेष्टा सरल होती है, वचनोंका व्यापार स्वपरको अनिष्ट नहीं होता वह सब मन्द कषायके कार्य हैं। धर्म तो वह वस्तु है जहाँ न कषाय है और न मन-वचन-कायके व्यापार हैं। वास्तवमें वह वस्तु वर्णनातीत है। उसके होते ही जीव मुक्तिका पात्र हो जाता है। मुक्ति कोई अलौकिक पदार्थ नहीं। जहाँ दुःखोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है वहीं मुक्तिका व्यवहार होने लगता है। किसीने कहा है __ 'सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्। तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुष्प्राप्यमकृतात्मभिः ।।' हम लोगोंके जो प्रयास हैं वे दुःखनिवृत्तिके लिये हैं। दुःख किसीको इष्ट नहीं । जब दुःख होता है तब आत्मा बेचैन हो उठती है। उसे दूर करनेके लिये जो-जो प्रयत्न किये जाते हैं वे प्रायः हम सबको अनुभूत हैं। यहाँ तक देखा गया है कि जब अत्यन्त दु:खका अनुभव होता है और जीव उसे सहनेमें असमर्थ हो जाता है तब विष खाकर मर जाता है। लोकमें यहाँ तक देखा गया है कि मनुष्य कामवेदनाकी पीड़ामें पुत्री, माता और भगिनीसे भी सम्पर्क कर लेता है। यहाँ तक देखा गया है कि उच्च कुलके मनुष्य भंगिन के संसर्गसे भंगी तक हो जाते हैं। एक ग्राम मदनपुर है जो मेरी जन्मभूमिसे चार मील है। वहाँ एक भंगिन थी। उसका सम्पर्क किसी उच्च कुलके मनुष्यसे हो गया। पुलिसवालोंने उसपर मुकदमा चलाया। जब वह अदालतमें पहुंची तब मजिस्ट्रेटसे बोली कि 'इसे क्या फँसाते हो ? मेरे पास एक घड़े भर जनेऊ रखे हैं, किस-किसको फँसाओगे, मेरा सौन्दर्य देखकर अच्छे-अच्छे जनेऊधारी पैरोंकी धूलि चाटते थे और मै भी ऐसी पापिन निकली कि जिसने अपना नाश तो किया ही साथमें सहस्रोंको भी नष्ट कर दिया। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा दुःखकर वेदनामें सदसत्के विवेकसे शून्य हो जाता है, अतः दुःखनिवृत्ति ही पुरुषार्थ है। दुःखोंका मूल कारण इच्छा है। इसका त्याग ही सुखका जनक है। इच्छाकी उत्पत्ति मोहाधीन है। मोहमें यह आत्मा अनात्मीय पदार्थों में आत्मीयत्वकी कल्पना करता है। जब आत्मीय पदार्थको अपना मान लिया तब उसके अनुकूल पदार्थों में राग और प्रतिकूल पदार्थों में द्वेष स्वयं होने लगता है, अतः हमारी गोष्ठीमें यही चर्चाका विषय रहता था कि इस शरीरमें निजत्वबुद्धिको सबसे पहले हटाना चाहिए। यदि यह हट गई तो शरीरके जो सम्बन्धी हैं उनसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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