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________________ यह ईसरी है 341 रहने लगे। बंगलामें चैत्यालय भी स्थापित करा लिया। आपकी धर्मपत्नी निरन्तर पूजा करती हैं। यद्यपि आप वैष्णवकी कन्या हैं तथापि जैनधर्मसे आपका अटूट अनुराग है। यदि कोई त्यागी व्रती आ जावे तो उसके आहारादिकी व्यवस्था आपके यहाँ अनायास हो जाती है। आपके दो सुपुत्र हैं। दोनों ही सज्जन और सुशील हैं। श्री सखीचन्द्रजी साहबकी एक बहिन है जो बहुत ही धर्मात्मा और उदार हैं। आप विधवा हैं। निरन्तर धर्मसाधनामें आपका काल जाता है। मैं भी प्रायः सालमें तीन मास निमियाघाट रहता था। यहाँसे श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी यात्रा बड़ी सुगमतासे हो जाती है। डाकबंगला तक सड़क है, जिसमें रिक्सा भी जा सकता है। बहुत ही मनोरम दृश्य है। बीच में चार मीलके बाद एक सुन्दर पानी का झरना पड़ता है। यहाँ पर पानी पीनेसे सब थकावट चली जाती है। यहाँ का जल अमृतोपम है। यदि यहाँ कोई धर्मसाधना करे तो झरनाके ऊपर एक कुटी है, परन्तु ऐसा निर्मम कौन है जो इस निर्वाणभूमिका लाभ ले सके । अथवा साधनोंके अभावमें कोई उत्साह भी करे तो क्या करे ? एक अन्य मतका साधु यहाँ पर रहता था। आठ दिन बाद निमियाघाट आता था। श्री सखीचन्द्रजी उसकी भोजनव्यवस्था कर देते थे। थोड़े दिन बाद वह परलोकयात्रा कर गया। निमियाघाटमें यदि कोई रहे तो यहाँ धर्मसाधनके लिये आरावालों की एक उत्तम धर्मशाला है। दुकानदार भी यहाँ रहते हैं, जिससे भोजनादि सामग्रीका भी सुभीता है। परन्तु यहाँ कोई रहता नहीं। उसका कारण है कि उदासीनाश्रम ईसरीमें ही है, अतः जो त्यागी आते हैं वे वहीं रहते हैं। __ श्रीप्रेमसुखजी बहुत सज्जन धर्मात्मा हैं। आपका कुटुम्बसे मोह नहीं। एक बार अष्टाह्निकापर्वमें आपको ज्वर आ गया। चार दिन तक आप बराबर मन्दिर जाते रहे, फिर सामर्थ्य नहीं रही। हजारीबागरोडसे आपके भाई, लड़का बहू आदि सब आ गये। सबने आपकी वैयावृत्य की पर आपने किसीसे मोह नहीं किया। आपके समाधिमरणमें श्री लाला सुमेरुचन्द्रजी जगाधरीवाले, मैं तथा अन्य त्यागीगण बराबर संलग्न रहे। अन्तमें आपने शान्तिपूर्वक प्राणोंका विसर्जन किया। पाँच सौ रुपया दान कर गये। इसी प्रकार यहाँ पर एक जगन्नाथ बाबा भिवानीवाले रहते थे। बहुत धार्मिक और कुशल व्यक्ति थे। मेरेसे आपका घनिष्ठ स्नेह था। जब आप बीमार पड़े तब मुझसे बोले अब मेरा बचना कठिन है, मुझे धर्म सुनाओ। मैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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