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________________ मेरी जीवनगाथा 340 उसका संचालन भी स्वयं करती हैं। जो विधवाएँ उसमें पढ़नेके लिये आती हैं उन्हें वैधव्यदीक्षा पहले लेनी पड़ती है। ईसरीमेंजो भी बाइयाँ हैं, सभी संसारसे विरक्त हैं। कभी-कभी यहाँ समाज प्रख्यात श्रीचन्दाबाई भी आरासे आ जाती हैं। आपके विषयमें क्या लिखू, आप तो जगत्प्रख्यात ही हैं। जैनियोंमें शायद ही कोई हो जो आपके नामसे परिचित न हो। आपका काल निरन्तर स्वाध्यायमें जाता है। आप लगातार दो माह तक यहाँ रहती हैं। तत्त्वचर्चामें अतिनिपुण हैं। व्याख्यानमें आपके समान स्त्री-समाजमें तो दूर रही, पुरुष समाजमें भी विरले हैं। आपका स्वभाव अत्यन्त कोमल हैं। आपके साथ श्रीनिर्मल बाब की माँ भी आती हैं। आपकी निर्ममता अवर्णनीय है। आप निरन्तर गृहस्थीमें रहकर भी जलमें कमलकी तरह निर्लेप रहती हैं। कुछ दिनके बाद धन्यकुमारजी भी सपत्नीक यहाँ आ गये। आपका निवासस्थान वाड़ था। आप बहुत ही संयमी हैं। स्त्रीपुरूष दोनों ही ब्रह्मचर्यव्रत पालन करते हैं। जब दोनों साथ-साथ पूजन करते हैं तब ऐसा मालूम होता है मानों भाई बहिन हों। आपका भोजन बड़ा सात्त्विक है। आपने कई पुस्तकोंकी रचना की है। निरन्तर पुस्तकावलोकन करते रहते हैं। मेरे साथ आपका बहुत स्नेह है आपका कहना था कि ईसरी मत छोड़ो अन्यथा पछताओंगे, वही हुआ। संसारमें गृहस्थभार छोड़ना बहुत कठिन है। जो गृहस्थभार छोड़कर फिर गृहस्थोंको अपनाते हैं उनके समान मूर्ख कौन होगा ? मैने अपने कुटुम्बका सम्बन्ध छोड़ा। माँ बाप मेरे हैं नहीं। एक चचेरा भाई है, उससे सम्बन्ध नहीं। घर छोड़नेके बाद श्रीबाईजीसे मेरा समन्ध हो गया और उन्होंने पुत्रवत् मेरा पालन किया। मैं जब कभी बाहर जाता था तब बाईजीकी मातातुल्य ही स्मृति आ जाती थी। उनके स्वर्गारोहरणके अनन्तर मैं ईसरी चला गया। वहाँ सात वर्ष आनन्दसे रहा। इस बीच में बहुत कुछ शान्ति मिली। यह ईसरी है श्रीमान् सखीचन्द्रजी कैशरेहिन्दसे मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध था। आप बहुत ही धार्मिक व्यक्ति थे। प्रतिदिन जिनेन्द्रदेवका पूजन करते थे। स्वाध्याय तो प्रायः अहोरात्रि ही करते रहते थे। तत्त्वचर्चासे आपको बहुत प्रेम था। आपने अपना अन्तिम जीवन धार्मिक कार्योमें ही बितानेका दृढ़संकल्प कर लिया था, इसलिए आपने निमियाघाटमें एक अच्छा बंगला बनवाया और उसीमें अधिकतर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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