SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरी जीवनगाथा 330 सत्य रुचि होती तो प्रातःकालका बहुमूल्य समय यों ही न खो देते। इस समय स्वाध्याय कर तत्त्वज्ञानकी निर्मलता करते, परन्तु वह तो दूर रहा, व्यर्थ ही मेरे साथ एक घटिका समय खो दिया। इतनेमें तो मैं दो मील चला जाता और आप दो पत्र स्वाध्यायमें पूर्ण करते। परन्तु अभी वह दृष्टि नहीं। अभी तो परके गुण-दोष विवेचन करने के चक्रमें पड़े हो। जिस दिन इस विषमताके जालसे मुक्त हो जाओगे उसी दिन स्वकीय कल्याण-पथके पथिक स्वयमेव हो जाओगे। यह स्पष्ट बात सुनकर यदि आपको कुछ उद्विग्नता हुई हो, तो मैं जाता हूँ। मेरा अभिप्राय आपको खिन्न करनेका नहीं, परन्तु आप अपनी विषम परिणतिसे स्वयं उद्विग्न हो जावें तो इसमें मेरा क्या अपराध है? अच्छा नमस्ते।' ऐसा कहकर वह चला गया। ___मैंने विचार किया कि अनधिकार कार्यका यही फल होता है। मन्दिरसे धर्मशाला आया। भोजन तैयार था, अतः आनन्दसे भोजनकर बुद्धदेवका मन्दिर देखनेके लिये चला गया। जैन मन्दिरसे कुछ ही दूरीपर बुद्धदेवका बहुत ही सुन्दर मन्दिर बना है। इस मन्दिरके बनवानेवाले श्रीधर्मपाल साधु हैं। ये बौद्धधर्मके बहुत भारी विद्वान् हैं। यहाँ पर बौद्धधर्मानुयायी बहुतसे साधु रहते हैं। मन्दिरमें दरवाजेके ऊपर एक साधु रहता है जो बुद्धदेवकी जीवनी बताता है और उनके सिद्धान्त समझाता है। यदि यह अवस्था वहाँके जैन मन्दिरमें भी रहती तो आगत महाशयोंको जैनधर्मका बहुत कुछ परिचय होता जाता, परन्तु लोगोंका उस ओर ध्यान नहीं। वे तो संगमर्मरका फर्श और चूना ईंट लगवानेमें ही महान् पुण्य समझते हैं। अस्तु। सबसे महती त्रुटि तो इस समय यह है कि इस धर्मका माननेवाला कोई सार्वजनिक प्रभावशाली पुरुष नहीं है। ऐसे पुरुषके द्वारा अनायास ही धर्मकी वृद्धि हो जाती है। यद्यपि धर्म आत्माका स्वभाव है तथापि व्यक्त होनेके लिए कारणकूटकी आवश्यकता होती है। जिस धर्ममें प्राणिमात्रके कल्याणका उपदेश हो और बाह्यमे खाद्यपेय ऐसे हों कि जिनसे शारीरिक स्वास्थ्य सुरक्षित रहे तथा आत्मपरिणतिकी निर्मलतामें सहकारी कारण हो, फिर भी लोकमें उसका प्रचार न हो..........इसका मूल कारण जैनधर्मानुयायी प्रभावशाली व्यक्तिका न होना ही हैं। आप जानते हैं कि गृहस्थको मद्य मांस मधुका त्याग करना जैनधर्मका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy