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________________ गिरिराजकी पैदल यात्रा 329 पास एक झोली थी, जो उसने मेरे पास रख दी। मैंने कहा-इसमें कुछ है तो नहीं ?' उसने कहा-'फक्कड़के पास क्या होता है ? फिर भी आपको सन्देह होता है तो देख लीजिए। भयकी बात नहीं मेरे पास गीताकी एक पुस्तक, दो लंगोटियाँ तथा एक लुटिया है। बस, अब जाऊँ ?' मैंने कहा-'जाइये।' वह गया और पन्द्रह मिनटमें दर्शन कर वापिस आ गया। मुझसे बोला-'मूर्ति अत्यन्त आकर्षक है। देखनेसे चित्तमें यही भाव आया कि शान्तिका मार्ग इसी मुद्रासे प्राप्त हो सकता है, परन्तु लोग इतने पुण्यशाली नहीं कि उस लाभके पात्र हो सकें । अस्तु, अब मैं जाता हूँ।' मैने कहा-'मैं दो घण्टा बाद भोजन बनाऊँगा तब आप भोजन करके जाना।' वह बोला-मैं अभीसे भोजनके लिये नहीं ठहर सकता। आप कष्ट न करिये।' मैंने कहा- 'कुछ विलम्ब करिये। वह ठहर गया। मैने जोखम नौकरको बुलाया और कहा कि 'एक पाव सत्तू और आध पाव शक्कर इन्हें दे दो।' सुनते ही साथ वह साधु बोला कि 'आप तो दिगम्बर सम्प्रदायके हैं। क्या ऐसा नियम है कि दिगम्बर साधुको छोड़कर अन्य सभी मतके साधु साथमें भोजनकी सामग्री लेकर चलते हैं। जहाँ जाऊँगा वहीं भोजन मिल जावेगा। आप चिन्ता न कीजिये।' मैने उसे एक रुपया देनेका प्रयत्न किया। वह बोला कि 'आप निवृत्ति मार्गको दूषित करनेकी चेष्टा करते हैं। मैंने जिस दिन साधुता अंगीकार की उसी दिनसे द्रव्य स्पर्श करनेका त्याग कर दिया, परन्तु खेद है कि आपको यह विश्वास हो गया है कि जैन साधुको छोड़कर सभी साधु परिग्रही होते हैं। जैनमतके सिद्धान्तों और अन्य मतके सिद्धान्तोंमें अन्तर है, यह मैं भी जानता हूँ, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि जैन ही त्याग कर सकते हों। आप मुझे लोभी बनाना चाहते हो, यह कहाँ का न्याय है ? मैने कहा-आप रेलमें नहीं बैठते ? उसने कहा-'फिर वही बात ? रेलमें या तो पैसे वाला बैठे या जिसे लातें तथा घूसा खाना हो वह बैठे । मैं तो जिस दिनसे साधु हुआ उसी दिनसे सवारियोंका त्याग कर दिया। और कुछ पूछना चाहते हो ?' मैंने कहा-नहीं।' तो अब जाता हूँ परन्तु आपसे एक बात कहना चाहता हूँ और वह यह कि आप किसीकी परीक्षा करने की चेष्टा कदापि न करिये। अपनी परीक्षा कीजिये। यदि आपकी कोई परीक्षा करने लगे तो आप जिस धर्मके सिद्धान्त पर चल रहे हों उसकी परीक्षामें कभी उत्तीर्ण नहीं होंगे, क्योंकि आपके अभिप्रायमें अभी आत्मीय अवगुणोंकी सत्य समालोचना करने की रुचि नहीं हैं। यदि आत्मोत्कर्षकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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