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________________ गिरिराजकी पैदल यात्रा 315 द्रोणगिरि पाठशालाके मंत्री हैं, रहते हैं। बहुत ही सज्जन व्यक्ति हैं। उनसे सम्मति लेकर दरगुवाँ पहुँचा। यहाँ पर एक जैन पाठशाला है, जो श्रीयुत ब्रह्मचारी चिदानन्दीजीके द्वारा स्थापित हैं। आप निरन्तर उसकी देख-रेख करते रहते हैं। यहींपर आपने एक गुजराती मन्दिर भी निर्माण कराया है और उसके लिये आपने अपना ही मकान दे दिया है। अर्थात् अपने रहने ही के मकानमें मन्दिर निर्माण करा दिया है। आप योग्य व्यक्ति हैं। निरन्तर ज्ञानवृद्धिमें आपका उपयोग लीन रहता है। आपने बुन्देलखण्ड प्रान्तमें पच्चीस पाठशालाएँ स्थापित करा दी हैं। आपको यदि पूर्ण सहायता मिले तो आप बहुत उपकार कर सकते हैं, परन्तु कोई योग्य सहायक नहीं। आप व्रत भी निरतिचार पालते हैं। आपकी वृद्धा माता हैं, जो सब काम अपने हाथों से करती हैं। आपकी गरीबोंपर बड़ी दया रहती है। आप निरन्तर विद्याभ्यास करते रहते हैं। आपकी उदासीनाश्रममें पूर्ण रुचि रहती है। आपके ही प्रयत्नका फल है कि सागरमें जौहरी गुलाबचन्द्रजीके बागमें एक आश्रम स्थापित हो गया है। आपकी प्रकृति उदार है। भोजनमें आपको अणुमात्र भी गृध्नता नहीं है। आपके समागममें दो दिन सानन्द व्यतीत हुए। आपने खूब आतिथ्यसत्कार किया। यहाँसे श्रीद्रोणगिरिको चल दिये। बीचमें सड़वा गाँव मिला। यहाँ जैनियोंके दस घर हैं। परन्तु परस्पर में मेल नहीं, अतः एक रात्रि ही यहाँ रहे और चार घण्टे चलकर श्रीद्रोणगिरि पहुँच गये। यहाँ पर सुन्दर धर्मशाला है। पण्डित दुलीचन्द्रजी वाजनावालोंने बड़े परिश्रमसे इसका निर्माण कराया था। यहाँपर एक गुरुदत्त पाठशाला चल रही है जिसकी रक्षा श्रीसिंघई कुन्दनलालजी सागर तथा मलहराके सिंघई वृन्दावनदासजी डेवड़िया करते हैं। पं. दुलीचन्द्रजी वाजनावालोंकी भी चेष्टा इसकी उन्नतिमें रहती है। श्रीछक्कीलालजी सिंघई हीरापुरवाले इसके मन्त्री हैं। आप प्रति आठवें दिन आते हैं और पाठशालाका एक पैसा भी अपने उपयोग में नही लाते। साथ में घोड़ा लाते हैं तो उसके घासका पैसा भी आप अपने पाससे दे जाते हैं। आप बड़े नरम दिल के आदमी हैं, परन्तु प्रबन्ध करनेमें किसीका लिहाज नहीं करते। पं. गोरेलालजी यहींके रहनेवाले हैं; व्युत्पन्न है। आप ही के द्वारा पाठशाला की अच्छी उन्नति हुई है। आप क्षेत्रका भी काम करते हैं। यहाँ पर एक हीरालाल पुजारी भी हैं। जो बहुत ही सुयोग्य हैं। जो यात्रीगण आते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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