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________________ खतौलीमें कुन्दकुद विद्यालय 289 तब क्या तू हरिश्चन्द्र बनकर दुकान चला सकेगा? कुछ दिन बाद दुकानको ध्वस्त कर देगा।' लाला किशोरीलालजी बोले- पिताजी! अन्तमें सत्यकी विजय होती है । अन्यायसे धन अर्जन करना मुझे इष्ट नहीं है। जितने दिनका जीवन है, सूखी रोटीसे भले ही पेट भर लूंगा, परन्तु अन्यायसे धनार्जन न करूँगा । किसी कवि ने कहा है अन्यायोपार्जितं वित्तं दश वर्षाणि तिष्ठति । प्राप्ते त्वेकादशे वर्षे समूलं च विनश्यति । । यदि आपको मेरा व्यवहार इष्ट नहीं है तो आप मुझे पृथक् कर दीजिये। मेरे भाग्यमें जो होगा उसके अनुसार मेरी दशा होगी, आप चिन्ता छोड़िये ।' पिताने आवेगमें आकर इन्हें पृथक् कर दिया । यह पृथक् हो गये । इन्होंने मन्दिरमें जाकर इष्टदेवका आराधन किया और यह प्रतिज्ञा की कि एक वर्षमें इतने रुपये का कपड़ा बेचेंगे, भाद्रमास में व्यापार न करेंगे और किसीको उधार न देवेंगे। यह भी निश्चय किया कि हमारे नियमके अनुसार यदि कपड़ा पहले बिक गया तो फिर भाद्रमास तक सानन्द धर्मसाधन करेंगे। आपका अटल विश्वास अल्पकालमें ही जनताके हृदय में जम गया और आपकी दुकान प्रसिद्ध हो गई। आप प्रायः कभी नौ माह और कभी दस माह ही व्यापार करते थे। इतने ही समय में आपकी प्रतिज्ञाके अनुसार माल बिक जाता था। आप थोड़े ही वर्षों में धनी हो गये । आपकी दानमें भी अच्छी प्रवृत्ति थी । आपके दो बालक थे। आप किसीको उधार कपड़ा न बेचते थे । . एक बार आपने ऐसा अटपटा नियम लिया कि कपड़ा लेनेवाले को प्रथम तो हम उधार नहीं देवेंगे और यदि किसी व्यक्तिने विशेष आग्रह किया तो दो हजार तक दे देवेंगे, परन्तु वह दूसरे दिन तक दे जावेगा तो ले लेवेंगे, अन्यथा नहीं और वह भी जब तक कि रोकड़ वही चालू रहेगी, बन्द होनेके बाद न लेवेंगे। दैवयोगसे जिसने इनके यहाँ से कपड़ा उधार लिया था वह दूससे दिन जब इनकी रोकड़ बन्द हो गई तब रुपया लाया। आपने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार रुपया नहीं लिया । यद्यपि उसने बहुत कुछ मिन्नत की, पर आपने न सुनी। कहने का तात्पर्य यह है कि आप अपनी प्रतिज्ञासे च्युत नहीं हुए । फल यह हुआ कि इनकी धाक बाजार में जम गई, जिससे थोड़े ही दिन में आपकी गणना उत्तम साहूकारों में होने लगी। आपको तत्त्वज्ञान भी समीचीन था । अध्यात्मविद्यासे बड़ाप्रेम था । मेरी जो अध्यात्मविद्यामें रुचि हुई, यह आपके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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