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श्रीगोम्मटेश्वर-यात्रा
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स्टेशन आ गये और वहाँसे गाड़ी में बैठकर गिरिनारकी यात्राके लिए चल दिये।
रात्रिका समय था। बाईजीने श्रीनेमिनाथजीके भजन और बारहमासी आदिमें पूर्ण रात्रि सुखपूर्वक बिता दी। प्रातःकाल होते-होते सूरतकी स्टेशनपर पहुँच गये और वहाँसे धर्मशालामें जाकर ठहर गये। दर्शन पूजनकर फिर रेलमें सवार हो श्री गिरिनारजीके लिए प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचने पर शहरकी धर्मशालामें ठहर गये । श्रीनेमिनाथ स्वामीके दर्शन कर मार्ग प्रयासको भूल गये। बादमें तलहटी पहुंचे और वहाँसे श्री गिरिनार पर्वतपर गये।
पर्वतपर श्रीनेमिनाथ स्वामीका दर्शन कर गद्गद् हो गये। पर्वतके ऊपर नाना प्रकारके पुष्पोंकी बहार थी। कुन्द जातिके पुष्प बहुत ही सुन्दर थे। दिगम्बर मन्दिरके दर्शनकर श्वेताम्बर मन्दिरमें गये। यात्रियोंके लिए इस मन्दिरमें सब प्रकारकी सुविधा है। भोजनादिका उत्तम प्रबन्ध है। यदि कोई वास्तविक विरक्त हो और यहाँ रहकर धर्मसाधनकी इच्छा रखता हो तो इस मन्दिरमें बाह्य साधनोंकी सुलभता है। दिगम्बरोंका मन्दिर रमणीक है और श्रीनेमिनाथ स्वामीकी मूर्ति भी अत्यन्त मनोज्ञ है। परन्तु यदि कोई रहकर धर्मसाधन करना चाहे तो कुछ भी प्रबन्ध नहीं, क्योंकि यहाँ तो पर्वतके ऊपर रहना महान् अविनयका कारण समझते हैं। जहाँ अविनय है वहाँ धर्मकी सम्भावना कैसी ? क्या कहें ? लोगोंने धर्मका रहस्य बाह्य कारणोंपर मान रक्खा है और इसीपर बल देते हैं। पर वास्तविक बात यह है कि जहाँ बाह्य पदार्थों की मुख्यताका आश्रय लिया जाता है वहाँ अभ्यन्तर धर्मकी उद्भूति नहीं होती। विनय-अविनयकी भी मर्यादा होती है। निमित्तकारणोंकी विनय उतनी ही योग्य है जो आभ्यन्तरमें सहायक हो। जैसे सम्यग्दर्शनका प्रतिपादक जो द्रव्यागम है उसको हम मस्तकसे अञ्जलि लगाकर विनय करते हैं, क्योंकि उसके द्वारा हमको अर्थागम और ज्ञानागमकी प्राप्ति होती है। केवल पुस्तककी विनय करनेसे अर्थागम और ज्ञानागमका लाभ न होगा। पर्वत परम पूज्य है। हमें उसकी विनय करना चाहिए, यह सबको इष्ट है। परन्तु क्या इसका यह अर्थ है कि पर्वत पर जाना ही नहीं चाहिए ? क्योंकि यात्राका साधन पदयात्रा है। फिर जहाँ पदतलोंसे सम्बन्ध होगा वहाँ यदि अविनय मान ली जावे तो यात्रा ही निषिद्ध हो जावेगी। सो तो नहीं हो सकता। इसी प्रकार पर्वतोंपर रहनेसे जो शारीरिक क्रियाएँ आहार-विहारकी हैं वे तो करनी ही पड़ेंगी। वहाँ रहकर मानसिक परिणामोंकी निर्मलताका सम्पादन करना चाहिये।
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