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________________ चन्देकी धुनमें 205 यह है कि यहाँपर आनन्दसे धर्म चर्चामें पन्द्रह दिन बीत गये। पन्नालालजी वैशाखिया तीन घण्टा मन्दिरमें बिताते थे। पश्चात् भोजन करते थे, फिर सामायिकके बाद एक बजे दुकानपर जाते थे। आपके कपड़ेका व्यापार था। आपका नियम था कि एक दिनमें ५०) का ही कपड़ा बेचना, अधिकका नहीं और एक रुपये पर एक आना मुनाफा लेना, अधिक नहीं। आपसे ग्राहक मोल तोल नहीं करता था। यहाँ तक देखा गया कि यदि कोई ग्राहक विवाहके लिए १००) का कपड़ा लेने आया तो आपने ५०). ५०) के हिसाबसे दो दिनमें दिया। आप चार बजे तक ही दुकानमें रहते थे। बादमें घर चले जाते थे। आपकी धर्मपत्नी मुलाबाई बड़ी सुशील थी। आपके तीन या चार किसान थे जो आपसे ३००) या ४००) कर्ज लिये थे। पर आपको कभी उनके घर नहीं जाना पड़ा। वह लोग घर पर आकर गल्ला व रुपया दे जाते तथा ले जाते थे। आपका भोजन ऐसा शुद्ध बनता था कि अतिथि-त्यागी ब्रह्मचारीके भी योग्य होता था। ___अन्तमें आपका मरण समाधिपूर्वक हुआ। आपकी धर्मपत्नी मुलाबाई परिशोकसे दुःखी हुई। परन्तु सुबोध थीं, अतः सागर आकर बाईजीके पास सुखपूर्वक रहने लगी तथा विद्याभ्यास करने लगीं। उसे नाटक समयसार कण्ठस्थ था । वह बाईजीको माता और मुझे भाई मानने लगीं। इसप्रकार चन्दा वसूलकर मैं सागर आ गया। चन्देकी धुनमें एक मास बहुत परिश्रम करना पड़ा, इससे शरीर थक गया। एक दिन भोजन करनेके बाद मध्याह्नमें सामायिकके लिये बैठा। बीचमें निद्रा आने लगी। निद्रामें क्या देखता हूँ कि एक आदमी आया और कहता है कि 'वर्णीजी ! हमारा भी चन्दा लिख लो।' मैंने कहा-'आप तो बड़े आदमी हैं। यदि कलशोत्सव पर आते तो १०००) से कम न लेते। परन्तु क्या कहें ? वह तो समय गया अब पछताने से क्या लाभ ? आप ही कहिये क्या देवेंगे? उन्होंने कहा-'तीन सौ रुपया देवेंगे? मैं बोला-'आपको शोभा नहीं देता। आप विवेकी हैं। विद्याके रसको जानते हैं, अतः ऐसा व्यवहार आपके योग्य नहीं।' वह बोले-'अच्छा चारसौ रुपया ले लो।' मैंने कहा-'फिर वही बात, ठीक-ठीक कहिये।' वह बोले-'५००) ये हैं नगद लीजिये। मैंने दोनों हाथसे रुपया फेंक दिये और निद्रा भंग हो गई। जमीन पर गिर पड़ा। जमीनमें शिर लगनेसे आवाज हुई। बाईजी आई। बोली "भैया सामायिक करते हो या शिर फोड़ते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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