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५० : योगसार
जिसके सम्यक्त्व प्रधान है, वही ज्ञानी है और वही तीनों लोकोंमें प्रधान है । वह शीघ्र ही शाश्वत सुखके निधान केवलज्ञानको प्राप्त करता है ॥६१॥
जिस प्रकार कमलिनी पत्र कभी भी जलसे लिप्त नहीं होता है, उसो प्रकार यदि जीव आत्म-स्वभावमें लीन रहता है तो कर्मोंसे लिप्त नहीं होता है ।। ६२॥
जो ज्ञानी समभाव रूप सुखमें लीन होकर बार-बार आत्माको जानता है, वह कर्मोंका क्षयकर शीघ्र ही निर्वाणको प्राप्त करता है ॥६३॥ __ हे जीव ! पुरुषाकार-प्रमाण यह आत्मा पवित्र है, निर्मल गुणोंसे युक्त है, यह निर्मल तेज स्फुरित करता हुआ दिखलाई देता है ॥ ६४ ॥
जो अपवित्र शरीरसे भिन्न शुद्ध आत्माको जानता है वही अविनाशी सुखमें लीन होता है और समस्त शास्त्रोंको जानता है ।। ६५॥ __ जो आत्मा और परको नहीं जानता है तथा न ही परभावका त्याग करता है, वह समस्त शास्त्रोंको जानता हुआ भो मोक्ष-सुखको प्राप्त नहीं करता है ॥६६॥
जो लोग समस्त विकल्पोंका त्यागकर परम-समाधिको प्राप्त करते हैं, वे आनन्दका अनुभव करते हैं, उसीको मोक्ष-सुख कहते हैं ॥ ६७ ॥
हे पण्डित ! जिनेन्द्र भगवान्ने जो पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानोंको कहा है, उन्हें जान, जिससे तूं शीघ्र ही परम पवित्र हो सके ॥६॥ ___ समस्त जीव ज्ञानमय हैं- इस प्रकार जो समभाव है, वही सामायिक समझो-ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है ॥६६॥
- राग और द्वेष-इन दो का त्यागकर जो समभावका अनुभव होता है, उसे सामायिक समझो-ऐसा केवली भगवान्ने कहा है ॥ १० ॥
हिंसादिकका परित्याग कर जो अपने आत्मामें उपयोगको लगाता है, उसे द्वितीय चारित्र ( छेदोपस्थापना ) जानो, यह पञ्चम गतिमें ले जाता है ॥ १०१॥
मिथ्यात्वादिके परिहारसे जो सम्यग्दर्शनकी शुद्धि होती है उसे परिहार-विशुद्धि संयम जानो, इससे शीघ्र ही मोक्ष-सिद्धि प्राप्त होती है॥ १०२॥
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