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________________ योगसार ५१ सूक्ष्म लोभका नाश होनेसे जो परिणामोंका सूक्ष्म होना है, उसे सूक्ष्म- ( यथाख्यात-) चारित्र जानो, वह शाश्वत सुखका स्थान है ॥ १०३ ॥ • निश्चयनयसे आत्मा हो अरिहन्त है, उसीका प्रकट होना सिद्ध है, उसीको आचार्य जानो, वही उपाध्याय है और उसीको मुनि समझो ॥ १०४ ॥ वही आत्मा शिव है, शङ्कर है, विष्णु है, वही रुद्र है, वही बुद्ध है, वही जिनेन्द्र भगवान् है, वही ईश्वर है, वही ब्रह्म है और वही आत्मा सिद्ध भी है ॥ १०५ ॥ इन लक्षणोंसे लक्षित जो परम निष्कल देव है तथा देहके मध्य में विराजमान जो आत्मा है, उन दोनोंमें भेद नहीं है ॥ १०६ ॥ जिनेन्द्र भगवान् का कहना है कि जो सिद्ध हो गये हैं और जो सिद्ध होयेंगे तथा जो सिद्ध हो रहे हैं, वे निश्चयसे आत्मदर्शन से हुये हैं- ऐसा भ्रान्ति रहित जानो ॥ १०७ ॥ Jain Education International संसारसे भयभीत जोगीचंद ( योगीन्दुदेव ) मुनिने आत्म-सम्बोधनके लिये एकाग्र मनसे इन दोहोंकी रचना की है ॥ १०८ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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