SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार : ४७ नासाग्र दृष्टिकर जो लोग आभ्यन्तरमें शरीर रहित (शुद्ध) आत्मा को देखते हैं, उनका फिर जन्म नहीं होता और न वे माताका दूध पोते हैं ॥ ६०॥ ___ शरीर रहित आत्माको उत्तम शरीर समझो और इस (पौद्गलिक ) शरीरको जड़ समझो, मिथ्या मोहका त्याग करो और मुक्ति रूप नितम्बिनो ( स्त्री ) का सेवन करो ॥ ६१ ॥ आत्मासे आत्माका अनुभव करते हुये कौनसे फलकी प्राप्ति नहीं होतो है ? अरे ! इससे केवलज्ञान भी हो जाता है और शाश्वत सुखकी प्राप्ति होती है ॥ ६२ ॥ जो मुनि परभावका त्यागकर अपनी आत्माको आत्माके द्वारा जानते हैं, वे केवलज्ञान प्राप्तकर संसारसे मुक्त हो जाते हैं ॥ ६३ ॥ वे धन्य हैं, भगवान् हैं, ज्ञानी हैं, जो परभावका त्याग करते हैं और लोकालोक प्रकाशक अपने निर्मल आत्माको जानते हैं ॥ ६४ ॥ सागार ( गृहस्थ ) अथवा अनगार ( साधु )- जो कोई भी अपनी आत्मामें निवास करता है, वह शीघ्र ही सिद्ध-( सिद्धि- ) सुखको प्राप्त करता है—ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ॥ ६५ ॥ बिरले विद्वान् हो तत्त्वको जानते हैं, बिरले व्यक्ति ही तत्त्वका श्रवण करते हैं, बिरले व्यक्ति ही आत्म-तत्त्वका ध्यान करते हैं और बिरले ही ( तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप ) तत्त्वको धारण करते हैं ॥ ६६ ॥ ये परिजन मेरे नहीं हैं, ये सुख-दुःखके कारण हैं इस प्रकारका चिन्तन करते हुये ( जीव ) संसारका शीघ्र ही छेद करता है ॥ ६७ ॥ इन्द्र, फणीन्द्र और नरेन्द्र भी जीवके शरण नहीं होते हैं। इस प्रकार जीवको अशरण जानकर श्रेष्ठ मुनि आत्माके द्वारा आत्माको जानते हैं ॥ ६८॥ ___ जीव अकेला पैदा होता है और अकेला ही मरता है तथा किसी भी सुख दुःखको अकेला ही भोगता है। नरक भी जीव अकेला ही जाता है तथा निर्वाणको भी अकेला ही प्राप्त होता है ॥ ६६ । जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरेगा, अतः परभावका त्याग करो, इससे शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त होगा ॥ ७० ।। जो पाप है, उसको जो पाप कहता है, उसे सब कोई जानता है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy