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४६ : योगसार
यह जीव मन और इन्द्रियोंसे छुटकारा पा जाता है तो हे योगी ! बहुत पूछनेकी आवश्यकता नहीं है । यदि राग भावका प्रसार रुक जाता है तो वह (आत्म-भाव ) सहज उत्पन्न हो जाता है ॥ ५४ ॥
पुद्गल अन्य है और जीव ( आत्मा ) अन्य है और समस्त व्यवहार भी अन्य है । अत: पुद्गल ( जड़ ) का त्याग कर और आत्माको ग्रहण कर । शीघ्र हो संसार सागर से पार हो जायेगा ।। ५५ ।।
जो ( नास्तिक जीवके अस्तित्वको नहीं मानते हैं और जो स्पष्ट रूपसे जीव ( आत्मा ) को नहीं जानते हैं, वे संसारसे नहीं छूटते हैं— ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥ ५६ ॥
रत्न', दीपक, सूर्य', दही-दूध घृत", पाषाण, सोना, चांदी, स्फटिकमणि' और अग्नि-इन नो दृष्टान्तोंसे जीव ( आत्मा ) को जानना चाहिये || ५७ ॥
शून्य ( अर्थात् परपदार्थोंसे सम्बन्ध रहित ) आकाशके समान जो देहादिकको ( आत्मासे ) भिन्न जानता है, वह शीघ्र ही परमब्रह्मका अनुभव करता है और केवलज्ञानका प्रकाश करता है ॥ ५८ ॥
हे जीव ! जिस प्रकार आकाश शुद्ध है, वैसे ही आत्मा शुद्ध कहा गया है, किन्तु आकाश जड़ है और आत्मा चेतना लक्षण वाला ॥ ५६ ॥
१. आत्मा रत्नके समान अनुपम है ।
२. आत्मा दीपकके समान स्व-परप्रकाशक है ।
३. आत्मा सूर्यके समान प्रकाशमान और प्रतापवान है ।
४. आत्मा दूध, दही, घी के समान है । आत्माके दूध सदृश शुद्ध स्वभावके मनन करनेसे आत्माकी भावना दृढ़ होती है । आत्माकी भावनाकी जागृति ही दहीका बनना है । फिर जैसे दहीके बिलोनेसे घी सहित मक्खन निकलता है, वैसे ही आत्माकी भावना करते-करते आत्मानुभव होता है, जो परमानन्द देता है ।
५. आत्मा पत्थरके समान दृढ़ और अमिट है ।
६. आत्मा शुद्ध स्वर्ण के समान प्रकाशमान ज्ञान धातुसे निर्मित है ।
७. आत्मा शुद्ध चाँदीके समान परम निर्मल है ।
८. आत्मा स्फटिकमणिके समान निर्मल और परिणमनशील है । ६. आत्मा अग्निके समान सदा जलता रहता है ।
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- ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद, योगसार टीका, पृष्ठ १६२-१६३ ।
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