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________________ योगसारे छन्दों में रचित एक प्रशस्ति दी है । जिससे वचनिकाकार एवं वनिका लिखने के कारणों पर प्रकाश पड़ता है। वचनिकाकार से सम्बद्ध जानकारी का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है । एतदतिरिक्त इस प्रशस्ति से कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर भी प्रकाश पड़ता है, अतः उनकी संक्षिप्त जानकारी यहाँ दी जा रही है । पूना ( महाराष्ट्र ) से पन्द्रह कोश दूर फलटन नामक नगरी है। वहां हुमक बयक ( बेंक ) में उत्पन्न दुलीचन्द नी रहते थे। वे बालब्रह्मचारी थे। उन्होंने अनेक तीर्थ यात्राएं की थीं। गृहत्यागी होने के कारण वे दूसरों के घर भोजन करते थे। उन्होंने विद्वानों से मान-सम्मान प्राप्त किया था। दुलीचन्द जी के एक सहायक मित्र हीराचन्द जी भाई थे, जो उन्हीं के कुल के थे । उन्होंने दुलीचन्द जी को विद्याध्ययन कराया था। श्री दुलीचन्द जी को फलटन से भागचन्द जी तथा सेठ बंडी कस्तूरचन्द जी ले आये। वे क्रमशः देवरिया-प्रतापगढ़ ( देवलिया परतापगढ़ ) प्रतिष्ठा कराने आये। वहां से इन्दौर के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराने हेतु सेठ फतेचन्द कुसला दुलीचन्द जी को इन्दौर ले आये। वहाँ से सेठ मूलचन्द जी नेमिचन्द जी, अजमेर ले आये और कुछ दिनों तक दुलीचन्द जी वहीं रहे। पुनः सेठ मूलचन्द जी श्री दुलीचन्द जी को जयपुर ले आये। उस समय जयपुर में रामसिंह का शासन था। जयपुर में श्री दुलीचन्द जी पहले दीवान जी के मन्दिर में रहे, पुनः तेरापन्थी बड़े मन्दिर में रहने लगे। तत्पश्चात् दीवान अमरचन्द के पौत्र श्री उदयलाल और विनयपाल अपने मन्दिर में ले आये। वहाँ जयपुर में श्री दुलीचन्द जी ने चार अनुयोगों के चार ग्रन्थ-भण्डार अपने खर्चे से स्थापित किये । यही दुलीचन्द जी पं० पन्नालाल चौधरी द्वारा लिखी गई वचनिकाओं के प्रेरणास्रोत रहे हैं। उपसंहार: अपभ्रंश भाषा की दृष्टि से योगसार का विशेष महत्त्व है। वास्तव में यह अध्ययन का अपने आपमें एक स्वतन्त्र विषय है। इस प्रस्तावना में हमने भाषा विषयक विचार नहीं किया है। योगीन्दुदेव के दोनों अपभ्रंश ग्रन्थपरमात्मप्रकाश और योगसार का स्वतंत्र रूप से भाषाशास्त्रीय अध्ययन किया जाना चाहिए। आभार-प्रदर्शन __ योगसार' वचनिका की हस्तलिखित 'मि०' प्रति दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर, मिरजापुर (उ० प्र० ) के ग्रन्थ भण्डार से प्राप्त हुई है। इस प्रति को प्राप्त कराने में वहाँ के उत्साही कार्यकर्ता श्री सुधीरचन्द जैन ( कटरा बाजीराव ) का अनन्य सहयोग रहा है, अतः हम उनके हृदय से आभारी हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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