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योगसार
नहीं कर सकता है। इसीलिए विवेकशील ज्ञानी पुरुष निश्चयनय की अपेक्षा पुण्य को भी पाप की कोटि में परिगणित करते हुये पाप को लोहे की जंजीर की संज्ञा देते हैं और पुण्य को सोने की जंजीर की । वस्तुतः जिस प्रकार उक्त दोनों जंजीरें प्राणी को बांधने का कार्य करती हैं, उसी प्रकार पुण्य और पाप जीव को संसार भ्रमण रूप कार्य कराते रहते हैं तथा मुक्त नहीं होने देते हैं । अतः निश्चय से पुण्य ( शुभभाव ) और पाप ( अशुभभाव ) हेय हैं तथा पुण्यपाप छोड़कर शुद्ध आत्मा का ध्यान ( शुद्धभाव ) उपादेय है। ध्यान ।
___ मोक्षाभिलाषी के लिये ध्यान का विशेष महत्त्व है । यह ध्यान चार प्रकार का है-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान । धर्म्यध्यान के चार भेद हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । पिण्ड अर्थात् शरीर में स्थित निजात्मा का चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है। मन्त्र-वाक्यों का ध्यान करना पदस्थ ध्यान है। सर्व चिद्रूप ( परमात्मा ) का चिन्तन करना रूपस्थ ध्यान है और निरञ्जन (सिद्ध भगवान्) का ध्यान करना रूपातीत ध्यान है।' सिद्ध और भिक्षाटन ।
जिन लोगों की यह मान्यता है कि सिद्ध हो जाने पर भिक्षा के निमित्त भगवान् भ्रमण करते हैं, वे भगवान् के मुंह पर हँसी उड़ाते हैं अर्थात् उनका अपमान करते हैं। मिथ्यादृष्टि के व्रत-तप ! ___ जीव जब तक शुद्ध स्वभावरूप पवित्र आत्मा को नहीं जानता है तब तक उस मिथ्याहृष्टि जीव के व्रत, तप, संयम और मूलगुणों को मोक्ष का कारण नहीं कहा जा सकता है । क्योंकि सम्यक्त्व के अभाव में ये समस्त क्रियायें व्यर्थ हैं । साथ ही एक अन्य बात यह भी है कि व्रत, तप, संयम और शील-ये सब व्यवहारनय से कहे गये हैं, मोक्ष का कारण तो एक निश्चयनय है ।
१. तत्त्वार्थसूत्र, ६/२८ । २. ( क ) पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।।
-परमात्मप्रकाश, ब्रह्मदेवकृत संस्कृतवृत्ति, दोहा १
-बृहद्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेवकृत संस्कृतवृत्ति, गाथा ४८ । ( ख ) उक्त चारों ध्यानों की विस्तृत जानकारी के लिये देखिये
-वसुनन्दिश्रावकाचार, ४५८-४७६ ।
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