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________________ प्रस्तावना मोक्ष के हेतु एवं मोक्षसुख : _____जीव का चरम लक्ष्य शाश्वत सुख के आधारभूत मोक्ष को प्राप्त करना है। इसकी प्राप्ति में हेतुभूत जो कारण बतलाये गये हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-इच्छारहित तप करना, आत्मा को आत्मा जानना, भगवान् जिनेन्द्रदेव का स्मरण करना, चिन्तन करना और शुद्ध मन से उन्हीं का ध्यान करना आदि । इनमें प्रमुख रूप से आत्मज्ञान नितान्त अपेक्षित है। जो जीव और अजीवके भेद को जानता है वही मोक्ष के कारणको जानता है । जो लोग समस्त विकल्पों का त्याग कर परम-समाधि को प्राप्त करते हैं, वे आनन्द का अनुभव करते हैं। उसी को मोक्ष-सुख कहते हैं । संसार दशा : जीव अनादिकाल से सुख-प्राप्ति के लिये प्रयास करता चला आ रहा है, किन्तु कभी भी सुख को प्राप्त नहीं कर सका है। इसका मूल कारण जीव का मिथ्यादर्शन एवं मोह के वशीभूत होना है। जीव की स्थिति विचित्र है। उसकी आयु क्षीण हो जाती है, किन्तु उसके मन की ग्रन्थियां क्षीण नहीं होती हैं और न ही आशा-तृष्णा । जीव की ममत्व बुद्धि जिस प्रकार विषय-कषायों के प्रति दृढ़ है, उस प्रकार आत्महित के प्रति नहीं। इसीलिए जीव संसार में भ्रमण करता हुआ दुःख भोगता है। बन्ध और मोक्षः विभाव रूप परिणाम से जीव कर्म-बन्ध को प्राप्त होता है तथा स्वभाव रूप परिणाम से मोक्ष को। जब अजर-अमर एवं गुणों के समूह का स्थान आत्मा स्थिर हो जाता है, तब जीव नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करता है तथा उसके पूर्व सञ्चित कर्मों का क्षय हो जाता है । सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना ही मोक्ष है। पुण्य और पाप : ___ जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होता है, वह पुण्य है । जो आत्मा को शुभ से बचाता है, वह पाप है । पुण्य से जीव स्वर्ग प्राप्त करता है और पाप से नरक में जाता है। जो पुण्य और पाप-इन दोनों को छोड़कर आत्मा को जानता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है । जो आत्मा को तो जानता नहीं है और समस्त पुण्य-कार्यों को करता है तो वह मोक्ष सुख को प्राप्त १. पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति पुण्यम्, पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम् । -सर्वार्थसिद्धि, ६/३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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