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________________ योगसारे प्रतिपाद्य विषय ग्रन्थ में आये हुये विषयों पर हमने विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत निम्न प्रकार से विचार किया हैमङ्गलाचरण एवं प्रतिज्ञा : ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिये ग्रन्थकारों द्वारा ग्रन्थ के आरम्भ, मध्य और अन्त में मङ्गलाचरण करने की प्राचीन परम्परा है। कुछ विद्वान् मात्र ग्रन्थ के आरम्भ में ही मङ्गलाचरण करते हैं। मङ्गल सामान्यतः तीन प्रकार का कहा गया है-मानसिक, वाचिक और कायिक । वाचिक मङ्गल निबद्ध भी होता है और अनिबद्ध भी। योगसार के प्रारम्भ में ग्रन्थकार योगीन्दुदेव ने निबद्ध वाचिक मङ्गलाचरण करते हुए सर्वप्रथम निर्मल ध्यान के माध्यम से कर्मरूपी कलङ्क को नष्टकर आत्म-स्वरूप को प्राप्त हुये सिद्ध भगवान् को नमस्कार किया है । पुनः चार घातिया कर्मों का नाशकर अनन्त-चतुष्टय को प्राप्त करने वाले अर्हन्त भगवान् के चरणों में नमस्कार किया है और अभीष्ट काव्य योगसार के रचने की प्रतिज्ञा की है। धर्म का स्वरूप : सामान्यतः लोग बाह्य-क्रियाकाण्डों में धर्म मानने लगे हैं, किन्तु वास्तविक धर्म उससे भिन्न है। धर्म, न पढ़ने से होता है और न शास्त्र रखने अथवा पिच्छी धारण करने से । मठ में प्रवेश करने से भी धर्म नहीं होता है और न केश-लुञ्चन आदि से । अपितु राग और द्वेष—इन दो का त्यागकर निजात्मा में निवास करना धर्म है । यह पञ्चम गति ( मोक्ष ) का प्रदाता है। रत्नत्रयः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के समूह को रत्नत्रय कहते हैं । जिससे देखा जाता है वह दर्शन है और निर्मल महान् आत्मा ज्ञान है तथा बार-बार आत्मा की भावना करना पवित्र चारित्र है। इस रत्नत्रय से संयुक्त जीव ही उत्तम तीर्थ है और वही मुक्ति का कारण है । आत्मतत्त्व: भारतीय दार्शनिकों ने आत्मतत्त्व पर गहन चिन्तन किया है, क्योंकि यह विचारणीय तत्त्वों का केन्द्र-बिन्दु रहा है। जैन मनीषियों द्वारा स्वीकृत सप्त १. तुलना कीजिए जं जाणइ तं गाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ॥ -मोक्षपाहुड, गाथा ३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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