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देवीदास-विलास (१) जल- तीर्थंकर की मूर्ति के सम्मुख उसकी पूजा में सर्वप्रथम जलद्रव्य समर्पित किया जाता है। भौतिक दृष्टि से जल जड़ एवं चेतन के लिए कितना उपयोगी है, यह तो सर्वविदित ही है। क्योंकि उनका अस्तित्व एवं विकास जल के बिना सम्भव नहीं। जब आध्यात्मिक दृष्टि से देखते हैं, तो जल चढ़ाते समय आराधक उसे “जन्म, जरा, मृत्यु विनाशनाय” मन्त्र का उच्चारण करके ही उसका समर्पण करता है। तात्पर्य यह कि जैन दर्शन के अनुसार इस भौतिक संसार के जितने भी सुख हैं, वे सभी क्षणिक हैं और प्राणी जब तक उनमें अपनी आसक्ति रखता है, तब तक वह सांसारिक बन्धनों से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जन्म, मृत्यु एवं बृद्धावस्था को ही संसार कहा गया है और आराधक का ऐसा परमविश्वास रहता है कि यदि मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक एवं जल को अभिमन्त्रित करके आराध्य को समर्पित किया जाय, तो निश्चित् ही आराधक के सांसारिक बन्धनों का नाश हो जायगा। - (२) चन्दन– जल के पश्चात् आराध्य के चरणों में चन्दन समर्पित करने का विधान है। चन्दन एक ओर शारीरिक व्याधियों का शमन कर शरीर में शीतलता प्रदान करता है, तो दूसरी ओर संसार के दुख रूपी संताप को भी विनष्ट करने में समर्थ है। इसीलिए “संसारताप विनाशनाय चन्दनम्" का उल्लेख किया गया है।
(३) अक्षत्- विविध कालीन, विविध भाषाओं में उपलब्ध समस्त जैनपूजा साहित्य में चावल को अक्षत् की संज्ञा प्राप्त है। क्योंकि भौतिक दृष्टि से यह अनाज भारतीय-कृषि उत्पादनों में प्राचीनतम एवं पोषक आहार माना गया है। इसका सेवन करने से व्याधियों का नाश एवं दीर्घायुष्य की प्राप्ति मानी गई है। इसीलिए पूर्वाचार्यों ने जैन-पूजा-विधान में इसके लिए विशेष महत्व दिया और उसे आध्यात्मिक दृष्टि से भी “अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतम्" का मन्त्र जाप करके आराध्य के चरणों में समर्पित किया जाता है।
(४) पुष्ष- काम की दस अवस्थाएँ समस्त संसार को अपने आँचल में ऐसा लपेट लेती हैं कि वह विवेकहीन होकर क्षणिक सुख को ही सब कुछ मान बैठता है और चौरासी लाख योनियों में भटकता फिरता है। इन्हीं विषम परिस्थितियों में मानव को जागृत एवं विवेकशील बनाने के लिए पूजा-आराधना में पुष्प को विहित मानकर सन्देश दिया गया हैं कि आराध्य के गुणानुवाद के समय काम की दसों अवस्थाओं को शमन करने के लिए पुष्प का समर्पण किया जाना चाहिए जैसा कि विहित मन्त्र में कहा गया है “कामबाणविध्वंशनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा”।
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