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चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड ३२७ दीपक ज्योति सुहावनी, हरण महातम पीर।
जासों पूजों वृषभ जिन, आदि अन्त महावीर।।६।। ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तजिनचरणाग्रेषु मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् स्वाहा।
धूप सुगन्धी परस तसु, करत सुवास समीर।
जासों पुजों वृषभजिन, आदि अन्त महावीर।।७।। ॐ ह्रीं वृषाभादिवीरान्तजिनचरणाग्रेषु अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामिति स्वाहा
फल फासू बहुभांति के, हरण हेत भवपीर।
जासों पूजों वृषभजिन, आदि अन्त महावीर।।८।। ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तजिनचरणाग्रेषु मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा
जल चन्दन आदिक सु धरि, बहुविध दरब गहीर।
जासों पूजों वृषभ जिन, आदि अन्त महावीर।।९।। ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तजिनचरणाग्रेषु मोक्षफलप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
गीतिका हम निरख जिन प्रतिविम्ब पूजत त्रिविध कर गुण थापना। तिनके न कारज काज निज कल्याण हेत सु आपना।। जैसे किसान करै जु खेती नाहि नरपति कारनै।
अपनौ सु निज परिवार पालन को सु कारज सारनै।।१०।। ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तजिनचरणाग्रेषु पूर्णाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा मण्डित गुण छयालीस, दोष अठारह कर रहित।
जै जिनवर चौवीस, पूजौ पुनि समझायकै।।११।। (२७) अष्टप्रातिहार्य-पूजा
द्रुतविलम्बित छन्द द्रुम अशोक जहाँ छवि देत है, लखत शोक व्यथा हर लेत है।
गुण सुमण्डित श्रीजिनदेव जू करहू लै जल आदि सु सेव जू।।१।। ॐ ह्रीं अशोकवृक्षप्रातिहार्यगुणमंडित श्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
सुर सुफूलन की वरसा करें, तर सुहेट सुपग तिसपै परे।
गुण सुमण्डित श्रीजिनदेव जू, करहु लै जल आदि सु सेव जू।।२।। ॐ ह्रीं पुष्पवृष्टिप्रातिहार्य गुणमण्डितश्रीवृषभादिवीरान्तचरणाग्रेषु अयम्।
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