________________
चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड २६१ छहसौ-तीस सहस अरु तीन लाख, पुनि तीन-लाख श्रावक सुद्यात श्रावगनी लक्ष जहाँ सुपंचगति सिद्धि जती तहाँ च्युत प्रपंच।।२१।। ऋषियों की संख्या तीन लाख, शत-आठ-सहस नव अवधवार। उनईस-सहस वैक्रियक ऋद्धि, वारै मनपर्यय समृद्ध।।२२।। साढ़े छहसौ-इक्कीस-सहस्र, पर के मन की जाने निरस्त्र। उपज्यौ केवल तिनकें अपार, जे जिनवर सम सोलह हजार।।२३।। जलेश्वर नाम कहो है जक्ष, वादी सहस्र एकवादि पक्ष। समवादिशरण तिनकी सुवाति, निज शक्ति उलंघ्य वरनी न जात। गुणको वरणन कीनौ सु लेश, चौथे हैं अभिनंदन-जिनेश।।२४।।
सोरठा गिरि ऊपर सम्मेद, सुदि बैसाख सु सप्तमी।
अष्ट करम नग भेद, मुक्ति गये बंदौं सदा।।२५।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दनजिनचरणाग्रे जयमालाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
गीतिका विधि पूर्व जो जिनविम्ब पूजत द्रव्य अरु पुन भावसों। अतिपुण्य की तिनकें सु प्रापत होय दीरघ आयु सों।। जाके सुफल कर पुत्र धन धान्यादि देह निरोगता। चक्रेश खग-धरणेन्द्र-इन्द्र सु होहि निज सुख भोगता।।२६।।
पुष्पाज्जलिं क्षिपामि (६) श्रीसुमतिनाथ जिनपूजा (4)
दोहा शोभित धनुष सु तीन सै, विमल वर्ण कलधौत।
लक्षण चकवा सुमति जिन, प्रति गुन सम इकसन्त।।१।। ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनप्रतिमागे पुष्पांजलिं छिपामि।
गीतिका छन्द - उज्ज्वल वसु गंगा जल सुचंगा परम पावन सीयरौ। द्रहते मु निकसत दिपत धारा देख हरषत हीय ।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org