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देवीदास-विलास हो अजान रह्यौ कहा करि मोह मदिरा पान। खोजु अंतर दिष्टि सौं पद आदि अंत पुरान।।७।। रे जिय. आपनौ निरधार कर तूं निज सरीर सुछान। स्वाद करि अनभौ महारस परम अंम्रतषान।।८।। रे जिय. सहज सुद्ध सुभाव तेरौ मिलै जब तोहि आन। होइ भाग्यवली सुदेवियदास कहत निदान।।९।। रे जिय.
___(२७) राग सोरठ धरहु उर परतीत तसु गुरु धरहु उर परतीत। वसत तिन्हि मैं चित्त निस दिन सुमति सरवसु रीत।।१।। तसु गुरु. नगन भेस न लेस परिगह जे सु परम पुनीत। राग-दोष न मोह तिन्हि कैं वैर-भाव न प्रीत।।२।। तसु गुरु. भोजनादि अलाभ लाभ विर्षे सु हारि न जीत। रहित भोग सु जोग मंडित रहित नित भय भीत।।३।। तसु गुरु. पंच विधि आचरन तिन्हि कैं विगत पर परनीत। एक ही परवान सुख-दुख उष्णता रितु सीत।।४।। तसु गुरु. भव्यजन उपदेश दाइक दया नाइक मीत। करत देवियदास तिन्हि की भक्ति गावत गीत।।५।। तसु गुरु.
(२८) राग ईमन सुजस सुनि आयो सरन जिन तेरे। हमरे बैर परे दोइ तसकर राग दोष सुन ठेरे।।१।। सुजस. तम सम और न दीसत कोइ जगवासी बहतेरे। मो मन और न मानत दूजौ लीक लगाइ नवेरे।।२।। सुजस. मोहि जात सिवमारग के रुख कर्म महारिपु घेरे। आनि पुकार करी तुम सनमुख दूरि करौ अरि मेरे।।३।। सुजस. यह संसार असार विर्षे हम भुगते दुक्ख घनेरे। अब तुम जानि जपौं निस वासर दोष हरौ हम केरे।।४।। सुजस. काल अनादि चरन सरनन बिनु भव वन मांहि परे रे। देवियदास वास भव नासन काज भए तुम्ह चेरे।।५।। सुजस.
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