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________________ स्वाध्याय २४. स्वाध्याय तप के अवसर में, जो प्रतिदिन का कार्य है, यह ध्यान नहीं रहता कि यह कार्य उच्चतम है। ___२७. स्वाध्याय करते समय जितनी भी निर्मलता हो सके करनी चाहिये। २८. स्वाध्याय से बढ़कर अन्य तप नहीं। यह तप उन्हीं के हो सकता है जिनके कषायों का क्षयोपशम हो गया है। क्योंकि बन्धन का कारण कषाय है। कषायका क्षयोपशम हुए बिना स्वाध्याय नहीं हो सकता, केवल ज्ञानार्जन हो सकता है। ___ २६. स्वाध्याय का फल रागादिकों का उपशम है। यदि तीब्रोदय से उपशम न भी हो तब मन्दता तो अवश्य हो जाती है। मन्दता भी न हो तब विवेक अवश्य हो जाता है। यदि विवेक भी न हो तब तो स्वाध्याय करनेवाले न जाने और कौन सा लाभ ले सकेंगे ? जो मनुष्य अपनी राग प्रवृत्ति को निरन्तर अवनत कर तात्त्विक सुधार करने का प्रयत्न करता है वही इस व्यवहार धर्म से लाभ उठा सकता है। जो केवल ऊपरी दृष्टि से शुभोपयोग में ही संतोष कर लेते हैं वे उस पारमार्थिक लाभ से वञ्चित रहते हैं। ३०. सानन्द स्वाध्याय कीजिये. परन्तु उसके फलस्वरूप रागादि मूर्छा की न्यूनता पर निरन्तर दृष्टि रखिये। ३१. आगम ज्ञान का इतना ही मुख्य फल है कि हमें वस्तुस्वरूप का परिचय हो जावे । ३२. शास्त्र ज्ञान का यही अभिप्राय है कि अपने को पर से भिन्न समझा जावे । जब मनुष्य नाना प्रयत्नों में उलझ जाता है तब वह लक्ष्य से दूर हो जाता है। वैसे तो उपाय अनेक हैं पर जिससे रागद्वेष की शृंखला टूट जावे और आत्मा केवल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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