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वर्णी-वाणी
पात्र रहता है। उपयोग उसका कहीं रहे परन्तु वासना इतनी निर्मल है कि अनन्त संसार का उच्छेद उसके हो ही जाता है। निरन्तर अपने को निर्मल रखिये, स्वाध्याय कीजिए, यही संसारबन्धन से मुक्ति का कारण है।
२२. यदि वर्तमान में आप वीतरागता की अविनाभाविनी शान्ति चाहें तब असम्भव है. क्यों कि इस काल में परम वीतरागताकी प्राप्ति होना दुर्लभ है। अतः जहाँ तक बने स्वाध्याय व तत्त्वचर्चा कीजिए।
२३. उपयोग को स्थिरता में स्वाध्याय मुख्य हेतु है। इसीसे इसका अन्तरङ्ग तप में समावेश किया गया है। तथा यह संवर और निर्जरा का भी कारण है। श्रेणी में अल्प से अल्प आठ प्रवचन मात्रिका का ज्ञान अवश्य होता है। अवधि और मनःपर्यय से भी श्रुतज्ञान महोपकारी है । यथार्थ पदार्थ का ज्ञान इसके ही बल से होता है। अतः सब उपायों से इसकी वृद्धि करना यही मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान है ।
२४. जिस तरह व्यापार का प्रयोजन पर्थिक लाभ है उसी तरह स्वाध्याय का प्रयोजन शान्तिलाभ है ।
२५. अन्तरङ्ग के परिणामों पर दृष्टिपात करने से आत्मा की विभाव परिणति का पता चलता है । आत्मा परपदार्थों की लिप्सा से निरन्तर दुखी हो रहा है, आना जाना कुछ भी नहीं । केवल कल्पनाओं के जाल में फंसा हुआ अपनी सुध में वेसुध हो रहा है । जाल भी अपना ही दोष है। एक आगम ही शरण है यही आगम पंचपरमेष्ठी का स्मरण कराके विभाव से आत्मा की रक्षा करनेवाला है।
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