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चारित्र
१. आत्मा के स्वरूप में जो चर्या है उसी का नाम चारित्र है, वही वस्तु का स्वभावपने से धर्म है।
२. बाह्य व्रत का उपयोग चारित्र के अर्थ है । यदि वह न हुआ तब जैसा व्रती वैसा अवती।।
३. मन्द कषाय व्रत का फल नहीं, वह तो मिथ्या गुणस्थान में भी हो जाता है । व्रत का फल तो वास्तव में चारित्र है, उसी से आत्मा में पूर्ण शान्ति का लाभ होता है।
४. पर्याय को सफलता संयम से है। मनुष्य भव में देव पर्याय से भी उत्तमता इसी संयम की मुख्यता से है ।
५. गृहस्थ भी संयम का पात्र है। देश संयम भी तो संयम ही है । हम व्यर्थ ही संयम का भय करते हैं। अणुव्रत का पालन तो गृहस्थ के ही होता है । परन्तु हम इतने भीरु और कायर हो गये हैं जो आत्महित से भी डरते हैं ।
६. संयम का पालन करना कल्याण का प्रमुख साधन है।
७. ज्ञान का साधन प्रायः बहुत स्थानों पर मिल जायेगा, परन्तु चारित्र का साधन प्रायः दुर्लभ है। उसका सम्बन्ध आत्मीय रागादि निवृत्ति से है । वह जब तक न हो यह बाह्य आचरण दम्भ है।
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