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वर्णी-वाणी
८. जीव संसार समुद्र के तारनेवाले चारित्र का पात्र होता है । चारित्र बिना मुक्ति नहीं, मुक्ति बिना सुख नहीं । ___६. अन्तरङ्ग श्रद्धापूर्वक विशुद्धता का उदय जिस आत्मा में होता है वह जीव चारित्र का उत्तरकाल में अधिकारी होता है अतः जिन जीवों को आत्मकल्याण करना है वे जीव निर्मोह होकर व्रत का पालन करें। ___ १०. शुभोपयोगिनी क्रिया पुण्यजननी है, उसे वैसा ही मानना किन्तु न करना यह कहाँ का सिद्धान्त है ? मन्द कषाय का मो तो बाह्य प्रवृत्ति से सम्बन्ध है । इसका सर्वथा निषेध बुद्धि में नहीं आता। अतः जिन्हें आत्महित करना है उन्हें बाह्य में अपनी प्रवृत्ति निर्मल करनी ही होगी । बादाम के ऊपरी भाग के भंग किये बिना बिजी का छिलका दूर नहीं हो सकता। जबतक हमारी प्रवृत्ति भोजनादि क्रियाओं में आगमोक्त न होगी केवल वचनबल और पाण्डित्य के बल पर कल्याण नहीं हो सकता ।
११. यदि आगमज्ञान संयमभाव से रिक्त है तब उससे कोई लाभ नहीं।
१२. स्वेच्छाचारी मनुष्यों के द्वारा कल्याण का होना बहुत दूर है । विषमिश्रित क्षीरपाक मृत्यु ही का कारण होता है। कहने का यह तात्पर्य है कि धर्मोपदेश उसी को लग सकता है जो श्रद्धावान् और संयमी हो ।
१३. वही व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी है जो श्रद्धा के अनुकूल ज्ञान और चारित्र का धारी हो ।
१४. शान्ति का स्वाद तभी आ सकता है जब श्रद्धा के साथ साथ चारित्र गुण की उद्भति हो ।
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