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________________ ३७ ज्ञान निमित्त नहीं पड़ती प्रत्युत मूर्छा के अभाव में निर्जराका कारण होती है । ७. मिश्री शब्द से मिश्री पदार्थ का परोक्ष ज्ञान होता है । इतने पर भी यदि कोई उसे प्राप्त कर खाने की चेष्टा न करे तब वह अनन्त काल में भी मिश्री के स्वाद का भोक्ता नहीं हो सकता । इसी तरह श्रुतज्ञान के द्वारा वस्तुस्वरूप को जानकर भी यदि कोई तदात्मक होने की चेष्टा न करे तब कभी भी ज्ञानात्मक आत्मा उसके स्वाद का पात्र नहीं हो सकता । ८. ज्ञानी वही है जो उपद्रवों से चलायमान न हो । स्यालिनी ने सुकुमाल स्वामी का उदर विदारण करके अपने क्रोध की पराकाष्ठा का परिचय दिया किन्तु सुकुमाल स्वामी उस भयंकर उपसर्ग से विचलित न होकर उपशम श्रेणी द्वारा सर्वार्थसिद्धि के पात्र हुए । अतः मैं उसी को सम्यग्ज्ञानी मानता हूँ जिसको मान अपमान से कोई हर्ष विषाद नहीं होता । ६. आगम ज्ञान मुख्य वस्तु है । पर पदार्थ का ज्ञाता दृष्टा रहना ही तो आत्मा का स्वभाव है और उसकी व्यक्तता मोह के अभाव में होती है, अतः आवश्यकता उसी के कृश करने की है । यथार्थ ज्ञान तो सम्यग्दर्शन के होते ही हो जाता है । १०. ज्ञान का फल वास्तव में उपेक्षा है । उसकी जिसके सत्ता है वही ज्ञानी है । ११. उदर पोषण के लिये विद्या का अर्जन नहीं । उदर पोषण तो काक मार्जार आदि भी कर लेते हैं । मनुष्य जन्म पाकर विद्यार्जन कर यदि उदर पोषण तक ही सीमा रही तब मनुष्य जन्म की क्या विशेषता रही ? मनुष्य जन्म तो मोक्ष का साधक है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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