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________________ ३५ श्रद्धा ७. जिन्हें दीर्घ संसार से भय है उन्हें श्रद्धा गुण को कलङ्कित नहीं करना चाहिए । ८. श्रद्धा के सद्भाव में शुभ प्रवृत्ति को अनात्मीय जान उसमें उपादेय बुद्धि करना योग्य नहीं । शुभ प्रवृत्ति हो होने दो, उसमें कर्तृत्व भाव न रक्खो । ६. मुख्यतया स्वाध्याय में भी हमारी दृढ़ श्रद्धा ही शिक्षक का कार्य करती है । १०. यह स्पष्ट है कि जिनमें उढ़ श्रद्धा की न्यूनता है वे देवादि का समागम पाकर भी आत्म सुख से वञ्चित रहते हैं । अतः सर्वप्रथम हमारा मुख्य लक्ष्य श्रद्धा की ओर होना चाहिये । ११. श्रद्धा से जो शान्ति मिलती है उसी का आस्वाद लेकर संतोष करो । १२. “संसार के दुःखों से सब भयभीत हैं" इसमें कुछ तत्त्व नहीं। तत्त्व तो श्रद्धापूर्वक उपाय के अनुकूल यथाशक्ति निवृत्ति मार्ग पर चलने में है । १३. यों तो जो कुछ सामग्री हमारे पास है वह सब कर्म - जन्य है । परन्तु श्रद्धा वस्तु कर्मजन्य नहीं । उसकी उत्पत्ति कर्मों के अभाव में ही होती है। इसकी उढ़ता है. संसार की नाशक है । १४. आत्मविषयक श्रद्धा ही इन आपत्तियों से पार करेगी, श्रद्धा ही तो मोक्षमहल का प्रथम सोपान है । उसकी आज्ञा है कि यदि परिग्रह से छूटना चाहते हो तो संकोच छोड़ो, निर्द्वन्द्व बनो । १५. श्रद्धा की निर्मलता ही मोक्ष का कारण है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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