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श्रद्धा
१. जो मनुष्य बुद्धिपूर्वक श्रद्धागुण को अपनायेगा उसे कोई भी शक्ति संसार में नहीं रोक सकती।
२. शुद्ध आत्मतत्त्व की उपासना का मूल कारण सम्यग्दर्शन ही है क्योंकि यथार्थ वस्तु का परिज्ञान सम्यग्ज्ञानी को ही होता है।
३. केवल श्रद्धा गुण के विकाश से कल्याण उदय में आता है । इसके होने पर अन्य गुणों का विकाश अनायास हो जाता है।
४-जिस तरह रोगी मनुष्य लंघन शुद्ध होने के बाद नीरोग हो जाता है और पथ्यादि सेवन कर अपनी अशक्तता को दूर करता हुआ एक दिन पूर्ण वलिष्ठ हो जाता है. उसी तरह सम्यग्दृष्टि आत्मा दर्शन मोह का अभाव होने पर नीरोग हो जाता है और क्रम से श्रद्धा का विषय लाभ करता हुआ एक दिन अपने अनन्त सुख का भोक्ता होता है।
५. कुछ भी करो श्रद्धा न छोड़ो। श्रद्धा हो संसरातीत अवस्था की प्राप्ति में सहायक होती है। श्रद्धा बिना आत्मतत्त्व को उपलब्धि नहीं होती।
६. जिन जीवों को सम्यग्दर्शन हो गया है उन्हें साता असाताका उदय चञ्चल नहीं करता।
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