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रत्नत्रय
१. यदि रत्नत्रय की कुशलता हो जावे तब यह सब व्यव - हार अनायास छूट जावे |
२. निरन्तर कषायों की प्रचुरता से रत्नत्रय परिणति आत्मीय स्वरूप को प्राप्त करने में असमर्थ रहती है । जिस दिन वह अपने स्वरूप के सन्मुख होगी अनायास कषायों की प्रचुरता का पता न लगेगा ।
३. जहाँ आत्मीय भाव सम्यक् भाव को प्राप्त हो जाता है वहाँ मिध्यात्व को अवकाश नहीं मिलता । कषायों की तो कथा ही व्यर्थ है । जिस सिंह के समक्ष - गजेन्द्र भी नतमस्तक हो जाता है वहाँ स्थाल गीदड़ों की क्या कथा ?
४. जो जीव दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो रहा है उसी को तुम स्वसमय जानो । और इसके विपरीत जो पुद्गल कर्म प्रदेशों में स्थित है उसे पर समय जानो । जिसकी ये दो अवस्थायें हैं उसे अनादि अनन्त सामान्य जीव समझो। केवल रागद्वेष की निवृत्ति के अर्थ चारित्र की उपयोगता है ।
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५. मुख्यतया अपनी आत्मा की कल्याण जननी रत्नत्रयी की सेवा करो । संसार के प्राणियों की अनुकूलता प्रतिकूलता पर अपने उपयोग का दुरुपयोग मत करो ।
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