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आत्मविश्वास
दुर्गति के पात्र बनते रहते हैं । "हाय ! इन कार्यों का नाश कैसे कर सकेंगे।" यह विचार बड़े बड़े बलवानों को भी निर्बल और निरुत्साही बना देता है। किन्तु जब वे धर्मशास्त्र के दूसरे विचारों को देखते हैं तब पूर्व विचार द्वारा जो कमजोरी आत्मा में स्थान पा गई है वह क्षणमात्र में विलीन हो जाती है। वे विचारते हैं कि जिस कर्म का बन्धन करनेवाले हम हैं उसका नाश करनेवाले भी हमी हैं । आत्मा की शक्ति अचिन्त्य और अनन्त है। जिस तरह प्रचण्ड सूर्य के समक्ष घटाटोप मेघ भी. देखते देखते बिखर जाते हैं उसी तरह जब यह आत्मा स्वीय विज्ञानधन और निराकुलतारूप सुख का अनुभव करता है तब उसको शक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि कितने ही बलिष्ठ कर्म क्यों न हों एक अन्तर्मुहूर्त में भस्मसात् हो जाते हैं । मोह का अभाव होते ही यह आत्मा ज्ञानाग्नि द्वारा अनन्त दर्शन. अनन्त ज्ञान, और अनन्त वीर्य के प्रतिबन्धक ज्ञानावरणादि कर्मों को इन्धन की तरह क्षण भर में भस्म कर देता है। इस प्रकार जब यह आत्मा अचिन्त्य शक्तिवाला है तब हम लोगों को उचित है कि अनेक प्रकार की विपत्तियों के समागम होने पर भी आत्मविश्वास को न छोड़े। ___ ७. श्रीरामचन्द्रजी को वनवास में दर दर भटकना पड़ा, अनेक आपत्तियाँ सहनी पड़ी, समन्तभद्र स्वामी को भी अनेक सङ्कटों ने घेरा, परन्तु उन्होंने अपने आत्मविश्वास को नहीं छोड़ा ! अकलङ्क स्वामी ने छः मास पर्यन्त तारादेवी से विवाद कर इसी आत्मबल के भरोसे धर्म की विजय वैजयन्ती फहराई । कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मविश्वास के न होने से हम कोई भी महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकते । जितने महापुरुष हुए हैं उन सभी में आत्मविश्वास एक ऐसा प्रभाविक
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