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________________ १९ आत्मनिर्मलता निर्मल हो जावें यह नियम नहीं। हाँ, वह जीव पुरुषार्थ करे और काललब्धि आदि कारण सामग्री का सद्भाव हो तो निर्मल परिणाम होने में बाधा नहीं । परन्तु केवल ऊहापोह करे और उद्यम न करे तो कार्य सिद्ध होना दुर्लभ है। २८. आत्मकल्याण के लिये अधिक समय की आवश्यकता नहीं, केवल निर्मल अभिप्राय को महती आवश्यकता है। ___२६. ऐसे ऐसे जीव देखे गये हैं जो थोड़े ही समय में परिणामों की निर्मलता से मोक्षगामी हो गये हैं। ३०. गृहस्थ अवस्था में नाना प्रकार के उपद्रवों का सद्भाव होने पर भी निर्मल अवस्था का लाभ अशक्य नहीं । ३१. वचन की चतुरता से कुछ लाभ नहीं, लाभ तो अभ्यन्तर परिणति के निर्मल होने से है। ३२. अपनी परिणति को पवित्र बनाने की चेष्टा करना ही प्रतिकूल निमित्तों से बचने का उपाय है। ३३. निमित्त कभी भी बुरे नहीं होते। शङ्ख पीला नहीं होता, परन्तु कामला रोगवालों को पीला प्रतीत होता है। इसी तरह जो हमारी अन्तःस्थित कलुषता है वही निमित्तों में इष्टानिष्ट कल्पना करा रही है। जब तक वह कलुषता न जावेगी तब तक संसार में कहीं भी भ्रमण कर आईये, शान्ति का अंशमात्र लाभ न होगा, क्योंकि शान्ति को रोकनेवाली कलुषता तो भीतर ही बैठी है । क्षेत्र छोड़ने से क्या होगा ! एक रोगी मनुष्य को साधारण घर से निकाल कर एक दिव्य महल में ले जाया जाय तो क्या वह नीरोग हो जावेगा ? अथवा काँच के नग में स्वर्ण की पच्चीकारी करा दी जाय तो क्या वह हीरा हो जावेगा ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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