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________________ वर्णी-वाणी २० ३४. निर्मलता में भय का अवसर नहीं । यदि वह होता तो अनादिनिधन मोक्षमार्ग कदापि विकासरूप न होता। ___ ३५. आजकल निर्मलता का अभाव है अतः मोक्षमार्ग का भी अभाव है। ३६. जब तक अन्तरङ्ग निर्मलता की आंशिक विभूति का उदय न हो तब तक गृहस्थी को छोड़ने से रोगादिक नहीं घटते। ३७. यदि निर्मलतापूर्वक एक दिन भी तात्त्विक विचार से अपने को विभूषित कर लिया तो अपने में ही तीर्थ और तीर्थङ्कर देखोगे। ३८. परिणामों की निर्मलता से आपके सब कार्य अनायास सिद्ध हो जावेंगे, धीरता से काम लीजिये। ३६. कल्याण का कारण अन्तरङ्ग की निर्मलता है न कि घर छोड़ना और मौन ले लेना। ४०. निर्मल आत्मा का ऐसा प्रभाव होता है कि उपदेश के बिना ही मनुष्य उसके पथ का अनुसरण करते हैं। ४१. जिनकी आत्मा अभिप्राय से निर्मल हो गई है वह व्यापारादि कार्य करते हुए भी अकर्ता हैं और जिनकी आत्मा अभिप्राय से मलीन हैं वह बाह्य में दिगम्बर होकर कार्य न करते हुए भी कर्ता हैं। ४२. जिन जीवों ने आत्मशुद्धि नहीं की उनका व्रत, उपवास, जप, तप, संयम आदि सभी निष्फल हैं, क्योंकि बाह्य क्रियाएं पुद्गल कृत विकार हैं। पुद्गल की शुद्धि से आत्मशुद्धि होना असम्भव है, इस लिये बाह्य आचरणों पर उतना ही प्रेम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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