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वर्णी-वाणी
आवश्यकता नहीं, केवल अपने पौरुष को सम्हालने की आवश्यकता है।
२०. श्री वादिराज महाराज ने अपने परिणामों के बल से ही तो कुष्ट रोग की सत्ता निर्मूल की, सेठ धनञ्जय ने औषधि के बिना केवल उसी से पुत्र का विषापहरण किया। कहाँ तक कहें, हम लोग भी यदि उस परिणाम को सम्हालें तो बिजली का आताप क्या वस्तु है, अनादि संसार के आताप का भी शमन कर सकते हैं।
२१. जो आत्मा मानसिक निर्मलता की सावधानी रखेगा वही इस अनादि संसार के पार जावेगा।
२२. इस संसार में महर्षियों ने मानव जन्म की महिमा गाई है परन्तु उस महिमा का धनी वही है जो अपनी परिणति से कलुषता को पृथक् कर दे।
२३. अन्तरङ्ग की शुद्धि होने पर तिर्यञ्च भी मोक्षपथ पा सकता है।
२४. “राग द्वेष दुखदाई है" ऐसा कहने में कुछ भी सार नहीं। उसके कर्ता हम हैं, आत्मा ही आत्मा को दुःख या सुख देनेवाला है इसलिये आत्माको निर्मल बनानेकी आवश्यकता है।
२५. आत्मनिर्मलता के लिये किसी की आवश्यकता नहीं, केवल विपरीत मार्ग की ओर न जाना ही श्रेयस्कर है। .
२६. आत्मपुरुषार्थ से अन्तरङ्ग की ऐसी निर्मलता होनी चाहिये कि पर पदार्थों का संयोग होने पर भी इष्टानिष्ठ कल्पना न होने पावें।. .
२७. अन्तरङ्ग की निर्मलता का कारण स्वयं आत्मा है, अन्य निमित्त कारण हैं। अन्य के परिणाम अन्य के द्वारा
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