________________
आत्मनिर्मलता
विपरीत अभिप्राय के अभाव में स्वयमेव हो जाती है उसके लिए भीषण तप की आवश्यकता नहीं ।
१७
१२. आत्मीय परिणति को निर्मल बनाओ, क्योंकि उसी पर तुम्हारा अधिकार है । पर की वृति स्वाधीन नहीं, अतः उसकी चिन्ता करना व्यर्थ है ।
१३. जो कुछ करना है आत्मनिर्मलता से करो ।
१४. हमारा तो यह दृढ़ विश्वास है कि जब तक आत्मा कलुषित रहता है; नियम से अशुद्ध है और जिस काल में कलुषित भावों से मुक्त हो जाता है उस काल में नियम से शुद्ध हो जाता है, अतः आत्मनिर्मलताहेतु मिथ्यात्व नष्ट करने का प्रयास करो।
१५. आप जब तक निर्मल न हों तब तक उपदेश देने के पात्र नहीं हो सकते ।
१६. आत्मपरिणामों को निर्मल करने में अपना पुरुषार्थ लगा देना चाहिए। जिन जीवों के परिणाम निरन्तर निर्मल रहते हैं वे नियम से सद्गति के पात्र होते हैं ।
१७. आत्मनिर्मलता संसार-बन्धन के छेदन करने में तीक्ष्ण सिधारा है ।
१८. जितने अधिक निर्मल बनोगे उतने ही शीघ्र संसारबन्धन से मुक्त हो जाओगे ।
१६. निमित्तजन्य रोग मेटने के लिए वैद्य तथा औषधादि की आवश्यकता है । फिर भी इस उपचार में नियमित कारणता नहीं । परन्तु अन्तरङ्ग निर्मलता में वह सामर्थ्य है जो उस रोग के मूल कारण को मेट देती है। इसमें बाह्य उपचारों की
२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org