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वर्णी-वाणी व्याघ्री द्वारा विदीर्ण हुए भी जाते हैं। सिंह से बलवान् पुरुष जिस सद्गति के पात्र हैं, नकुल बन्दर भी उसीकेापात्र हैं । जो कल्याण साता (सुख ) में हो सकता है वही असाता ( दुख) में भी हो सकता है। देवों के जो सम्यग्दर्शन होता है वही नारकियों के भी हो सकता है । अतः सिद्ध है कि (शारीरिक) सबलता और दुर्बलता सद्गति में साधक और बाधक नहीं, अपि तु आत्मनिर्मलता की सबलता और दुर्बलता ही सद्गति में साधक और बाधक है।
७. आत्मनिर्मलता के अभाव में यह आत्मा आज तक नाना संकटों का पात्र बन रहा है तथा बनेगा, अतः आवश्यकता इस बात की है कि आत्मीय भाव निर्मल बनाया जाय और उसकी बाधक कषायपरिणति को मिटाने का प्रयास किया जाय । आत्मनिर्मलता के लिए अन्य बाह्य कारणों के जुटाने का जो प्रयास है वह आकाशताड़न के सदृश है । ...८. आत्मनिर्मलताका सम्बन्ध भीतर से है, क्योंकि स्वयं आत्मा ही उसका मूल हेतु है। यदि ऐसा न हो. तो किसी भी आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता।
६. कोई भी कार्य करो वास्तविक तत्त्व को देखो, केवल बाह्य निर्मलता को देखकर सन्तोष नहीं करना चाहिए। बाह्य निर्मलता का इतना प्रभाव नहीं जो आभ्यन्तर कलुषता को हटा सके।
१०. आभ्यन्तर निर्मलता में इतनी प्रखर शक्ति है कि उसके होते ही बहिर्द्रव्य की मलिनता स्वयमेव चली जाती है।
११. जो वस्तु नख से छेदी जा सके उसके लिए भीषण शस्त्रों का प्रयोग निरर्थक है। इसी तरह जो अन्तरङ्ग निर्मलता
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