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आत्मनिर्मलता १. जिनके अभिप्राय स्वच्छ हैं वे गृहस्थावस्था में भी श्री रामचन्द्रजी की तरह व्यग्र होते हुए भी समय पाकर कर्म शत्रुका विनाश करने में, और सुकुमाल की तरह आत्मशक्ति का सदुपयोग करने में नहीं चूकते।
२. केवल शास्त्र का अध्ययन संसार बन्धन से मुक्त करने का मार्ग नहीं। तोता राम राम रटता है परन्तु उसके मर्म से अनभिज्ञ ही रहता है। इसी तरह बहुत शास्त्रों का बोध होनेपर जिसने अपने हृदय को निर्मल नहीं बनाया उससे जगत का कोई कल्याण नहीं हो सकता।
३. जो आत्मा अन्तरङ्गसे पवित्र होता है उसको देखकर बड़े बड़े मानियों का मान, लोभियों का लोभ, मायावियों की माया और क्रोधियों का क्रोध छूट जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अन्तरङ्ग को निर्मल बनाने की चेष्टा करें।
४. अन्तरङ्ग वासना की विशुद्धि से ही कर्मों का नाश सम्भव है, अन्यथा नहीं।
५. अन्तरङ्ग शुद्धि के बिना बहिरङ्ग सामग्री हितकर नहीं, अतः प्राणी को प्रथम चित्त शुद्धि करना आवश्यक है। .. .६. समवशरण को विभूतिवाले परम धाम जाते हैं और
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