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________________ वर्णी-वाणी १६. अन्तरङ्ग की बलवत्ता के समक्ष बाह्य विरुद्ध कारण श्रात्मा के अहित में अकिञ्चित्कर है परन्तु हम ऐसे मोही हो गये हैं जो उस ओर दृष्टिपात ही नहीं करते । शीतनिवारण के अर्थ उष्ण पदार्थ का सेवन करते हैं और उष्णता निवारण के अर्थ शीत पदार्थ का सेवन करते हैं। परन्तु जिस शरीर के साथ शीत और उष्ण पदार्थ का सम्पर्क होता है उसे यदि पर समझ उससे ममत्व हटा लें तब मेरी बुद्धि में यह आता है कि यह जीव न तो वर्फ के समुद्र में अवगाहन कर शीतस्पर्शजन्य वेदना का अनुभव कर सकता है, और न धधकती हुई भट्टी में कूद कर उष्णस्पर्शजन्य वेदना का ही। घोर उपसर्ग में आत्मलाभ प्राप्त करनेवाले सहस्रों महापुरुषों के आख्यान इसके प्रमाण हैं। १७. जो कुछ है सो आत्मा में, यदि वहाँ नहीं तो कहीं नहीं। . १८. अन्तरङ्ग की बलवत्ता ही श्रेयोमार्ग की जननी है । १६. जिन मनुष्यों को आत्मा होने पर भी उसकी शक्ति में श्रद्धा नहीं वे मानव धर्म के उच्च शिखर पर चढ़ने के अधिकारी नहीं। . २०. आत्मा की शक्ति प्रबल है । जो आत्मा पराश्रित बुद्धि से नरकादि दुर्गतियों का दयनीय पात्र होता है, वही एक दिन कर्मों को नष्ट कर मोक्ष नगर का भूपति बनता है। २१. आत्मा अचिन्त्य शक्ति है, उसका विकाश जिसमें हो गया वही वास्तव में प्रशंसा का पात्र और निजत्व का भोक्ता होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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