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________________ आत्मशक्ति और भेदविज्ञान के लिये महती आवश्यकता आगमाभ्यास की है। जितना समय संसारी कामों में लगाते हो उसका दशांश भी यदि आगमाभ्यास में लगाओ तो अनायास ही भेदविज्ञान हो सकता है। ११. आत्मा अनन्त ज्ञान का पात्र है और अनन्त सुख का धारी है परन्तु हम अपनी अज्ञानता वश दुर्दशा के पात्र बन रहे हैं। १२. पर को पर जानने की अपेक्षा आत्मा को आत्मा जानना विशेष महत्त्व का है। १३. आत्मा स्वतन्त्र वस्तु है, ज्ञान उसका निज का भाव है। यद्यपि उसका विकास स्वयं होता है, परन्तु अनादि काल से मिथ्यादर्शन के प्रभाव से आत्मीय गुणों का विकास रुक रहा है। इसी से पर में आत्मीय बुद्धि मानने को प्रकृति हो गई है। जो पञ्चेन्द्रियों के विषय हैं वे ही अपने सुख के साधन मान रक्खे हैं । यद्यपि ज्ञान के अन्दर उनका प्रवेश नहीं ऐसा प्रत्यक्ष देखने में आता है परन्तु अज्ञानता वश ऐसी कल्पना हो रही है कि यह हमारा है। जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब दीखता है। वह दर्पण का ही परिणमन है । वास्तव में दर्पण में अन्य पदार्थ का अंश भी नहीं गया फिर भी ऐसा भान होता है कि यह बाह्य पदार्थ ही है। १४. जब तक आभ्यन्तर हीनता नहीं गई तभी तक बाह्य निमित्तों की मुख्यता प्रतीत होती है। आभ्यन्तर हीनता की न्यूनता में आत्मा ही समर्थ कारण है। १५. आत्मशक्ति पर विश्वास ही मोक्षमहल की नींव है। इसके बिना मोक्ष महल पर आरोहण करना दुर्लभ है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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