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________________ वर्णी-वाणी रक्षा करने की। इसी तरह शरीर को न आत्मा को दुःख देने की इच्छा है और न सुख देने की ही। अतः इससे ममत्व त्याग कर प्रथम आत्मा का वह भाव, जिसके द्वारा शरीर में निजत्व बुद्धि होती थी, त्याग देना चाहिए। इसके होते ही संसार में जितने पदार्थ हैं उनसे अपने आप ममत्व छुट जावेगा और आत्मशक्ति जागृत हो उठेगी। ४. संसार में हम लोग जो आजतक भ्रमण कर रहे हैं, इसका मूल कारण यह है कि हमने अपनी रक्षा नहीं की और निरन्तर परपदार्थो के ममत्व में अपनी आत्मशक्ति को भूल गये। ५. आत्मा ही आत्मा का गुरु है और आत्मा ही उसका शत्रु है। ६. सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का मूल कारण आत्मा ही है । लब्धि तो निरन्तर है केवल काललब्धि की आवश्यकता है। उसके मिलने पर सम्यग्दर्शनका होना दुर्लभ नहीं। ७. आत्मा सर्वदा एकाकी रहता है, अतः परकी पराधीनता से न कुछ आता है और न कुछ जाता है ।। ८. आत्मा का हित अपने ही परिणामों से होता है । स्वाध्याय आदिक उपयोग की स्थिरता के लिये हैं, क्योंकि अन्त में निर्विकल्पक दशा में ही वीतरागता का उदय होता है। ____६. निज की शक्ति के विकास बिना दर दर भटकते फिरते हैं। यदि हम अपना पौरुष सम्हालें तो अनन्त संसार के बन्धन काट सकते हैं। १०. आत्मा में अचिन्त्य शक्ति है परन्तु कर्मावृत होने से वह ढकी हुई है। इसके लिये भेदविज्ञान की आवश्यकता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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