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कल्याण का मार्ग है । मेरा तो यही विश्वास है कि उसके भाव में अनन्त संसार की लता को उन्मूल करनेवाली जो निर्मलता है वह अन्य किसी भाव में नहीं । यदि वह भाव नहीं हुआ तब उसकी उत्पत्ति के अर्थ किये जानेवाले सारे प्रयास ( सत्समागम जप तप आदि ) पानी को विलोड कर घी निकालने के सदृश हैं ।
५७. पर्याय की जितनी अनुकूलता है उतना ही साधन करने से कल्याण मार्ग के अधिकारी बने रहोगे ।
५८. जबतक अपनी परिणति विशुद्ध और सरल नहीं होती कल्याण का पथ अति दूर है ।
५६. दूसरे प्राणियों की कथा मत कहो, अपनी कथा कहो और देखो कि अबतक मैं किन दुर्बलताओं से संसार में रुल रहा हूँ। उन्हें दूर करने की चेष्टा करो । यही कल्याण का मार्ग है ।
६०. यदि आप सत्यपथ के पथिक हैं तो अपने मार्ग से चले जाओ, कल्याण अवश्य होगा ।
६१. अचिन्त्य शक्तिशाली आत्मा को परपदार्थों के सहवास से हम ने इतना दुर्बल बना दिया है कि बिना पुस्तक के हम स्वाध्याय नहीं कर सकते, बिना मन्दिर गये हमारा श्रावकधर्म नहीं चल सकता, बिना मुनिदान के हमारा अतिथिसस्विभाग नहीं चल सकता और बिना सत्समागम के हमारी प्रवृत्ति नहीं सुधर सकती ।
६२. कल्याण तो अपने आत्मा के ऊपर का भार उतारने से ही होगा। यह कार्य केवल शब्दों द्वारा दशधा धर्म के स्तवनादि से नहीं होगा किन्तु आत्मा में जो विकृत औयिक भाव हैं उन्हें अनात्मीय जानकर त्यागने से होगा
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