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वर्णी-वाणी विशेष है; अतः उत्तम तो यही है कि ज्ञान के द्वारा जो परिणाम बन्ध के कारण हो रहे हैं उन्हें त्यागना चाहिये। इसी से कल्याण होगा।
५४. निःशल्य होकर आनन्द से स्वाध्याय करो, यह कल्याण में सहायक है।
५५. हम लोग अनादि काल से पराधीन हो रहे हैं. अतः पर से ही आत्मकल्याण की प्राप्ति चाहते हैं । परन्तु मेरी तो यह बढ़ श्रद्धा है कि पर के द्वारा किया गया कार्य कल्याणपथ का कारण नहीं । जैसे कोई यह माने कि मैंने धन दिया तब क्या पुण्य न हुआ ? पर आप उससे प्रश्न कीजिये कि क्या भाई धन तेरी वस्तु है जो उसे देने का अधिकारी बनता है ? वास्तवमें तेरा स्वरूप तो चैतन्य है और धन अचैतन्य है। यदि उसे तू अपना समझता है तब तू चोर हुआ और चोरी के धन से पुण्य कैसा ? इसी प्रकार शरीर भी पर है और मन वचन भी पर हैं; अतः इन से भी कल्याण मानना उचित नहीं, क्योंकि कल्याण का मार्ग तो केवल आत्मपरिणाम हैं।
५६. विशेष कल्याण का अर्थी जो पुरुष अपने अस्तित्व में दृढ़ प्रतीति रखता है उसी के पर का अवबोध हो सकता है, वही जीव देव गुरु धर्म की श्रद्धा का पात्र है, उसीको भेदविज्ञान होता है और वही रागद्वेष की निवृत्ति रूप चारित्र को अङ्गीकार करने का पात्र है। उस जीव के पुण्य और पाप में कोई अन्तर नहीं । शुभोपयोग के होते हुए उसमें उपादेय बुद्धि नहीं, विषयों की अपरिमित सामग्री का भोग होने पर भी आसक्तता नहीं, और विरोधी हिंसा का सद्भाव होने पर भी विरोधियों में विरोधभाव का लेश नहीं । कहाँ तक कहें उस जीव की महिमा अवर्णनीय
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