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कल्याण का मार्ग
है कि हम आत्मा को जान सकते हैं परन्तु बाह्याडम्बरों में फँसने के कारण उसे हम भूले हुए हैं।
४६. कल्याण के लिये पर की आवश्यकता नहीं, हमको स्वयं अपने बल पर खड़ा होना चाहिये और राग द्वेष से बचना चाहिये।
४७. कल्याण का मार्ग आप में है। केवल पर का बुरा करने में अपने उपयोग का दुरुपयोग करने से हम दरिद्र और दुःखी हो रहे हैं।
४८. कल्याण का मार्ग विशुद्ध परिणाम हैं और विशुद्ध परिणाम राग द्वेषकी निवृत्तिसे होते हैं।
४६. यह तो विचारो कि आत्मकल्याण का मार्ग अन्यत्र है या आपमें ? पहला पक्ष तो इष्ट नहीं, अन्तिम पक्ष ही श्रेष्ठ है तब हम मृगतृष्णा में क्यों भटके ?
५०. जिन्हें आत्मकल्याण की अभिलाषा हो वे पहिले. शुद्धात्मा की उपासना कर अपने को पवित्र बनावें ।
५१. कल्याण का पात्र वही होता है जो विवेक से काम लेता है। __ ५२. चिद्रूप ही आत्मकल्याण का हेतु है।
५३. "कल्याण की प्राप्ति में ज्ञान ही कारण है" यह तो मेरी समझ में नहीं आता । ज्ञान से पदार्थों का जानना होता है,
और केवल जानना कल्याण में सहायक होता नहीं । बाह्य आचरण भी कल्याण में कारण नहीं, क्योंकि उस आचरण का सम्बन्ध बाह्य से है। वचन को पद्धति भी कल्याण में कारण नहीं, क्योंकि वचन योग का निमित्त पाकर पुद्गलों का परिणमन'
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