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वर्णी-वाणी
३७. यदि कल्याण की इच्छा है तो प्रमाद को त्याग कर आत्मस्वरूप का मनन करो।
३८. कल्याण का मार्ग, चाहे वन जाओ, चाहे घर में रहो, आप ही में निहित है। पर के जानने से कुछ भी अकल्याण नहीं होता, अकल्याण का मूल कारण तो मूर्छा है । उसको त्यागने से सभी उपद्रव दूर हो जावेंगे। वह जब तक अपना स्थान आत्मा में बनाये है, आत्मा दुःखी हो रहा है । दुःख बाह्य पदार्थ से नहीं होता अपने अनात्मीय भावों से होता है। ____३६. कल्याणार्थियों को चाहिये कि जो भी कार्य करें उसमें अहंबुद्धि और ममबुद्धि का त्याग करें अन्यथा संसारबन्धन छूटना कदिन है।
४०. अन्यान्य का धन और इन्द्रियविषय ये दो सुमार्ग के रोड़े हैं।
४१. कल्याण का पथ निरीहवृत्ति है।
४२. संसार मोहरूप है, इसमें ममता न करो। कुटुम्ब की रक्षा करो परन्तु उसमें आसक्त न होओ । जल में कमल की तरह भिन्न रहो, यही गृहस्थ को श्रेयस्कर है।।
४३. कल्याण के अर्थ भीषण अटवी में जाने की आवश्यकता नहीं, मूर्छा का अभाव होना चाहिये ।
४४. मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि जो जीव आत्मकल्याण को चाहते हैं वे अवश्य उसके पात्र होते हैं।
४५. अनादि मोह के वशीभूत होकर हमने निज को जाना ही नहीं, तब कल्याण किसका ? इस पर्याय में इतनी योग्यता
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