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________________ ३ कल्याण का मार्ग ८. कल्याण पथ का पथिक वही जीव हो सकता है जिसे आत्मज्ञान हो गया है । ६. इस भव में वही जीव आत्मकल्याण करने का अधि कारी है जो पराधीनता का त्याग करेगा, अन्तरङ्ग से अपने ही में अपनी विभूति को देखेगा । १०. निरन्तर शुद्ध पदार्थ के चिन्तवन में अपना काल बिताओ, यही कल्याण का अनुपम मार्ग है । ११. स्वरूप की स्थिरता ही कल्याण की खान है । १२. आडम्बर शून्य धर्म ही कल्याण का मार्ग है । १३. कल्याण की जननी अन्य द्रव्य की उपासना नहीं, केवल स्वात्मा की उपासना ही उसकी जन्मभूमि है । १४. कहीं ( तीर्थयात्रादि करने ) जाओ परन्तु कल्याण तो भीतरी मूर्च्छा की ग्रन्थि के भेदन से ही होगा और वह स्वयं भेदन करनी पड़ेगी । १५. तत्त्वज्ञानपूर्वक रागद्वेष की निवृत्ति ही आत्मकल्याण का सहज साधन है । १६. अपने परिणामों के सुधार से ही सबका भला होगा । १७. परपदार्थ व्यग्रता का कारण नहीं, हमारी दृष्टि ही व्यग्रता का कारण है, उसे हटाओ । उसके हटने से हर स्थान तीर्थक्षेत्र है, विश्व शिखरजी है और आत्मा में मोक्ष है । १८. संसार के सभी सम्प्रदायानुयायी संसार यातना का अन्त करने के लिये नाना युक्तियों, आगम, गुरु परम्परा तथा स्वानुभवों द्वारा उपाय दिखाने का प्रयत्न करते हैं । जो हो हम और आप भी चैतन्यस्वरूप आत्मा हैं, कुछ विचार से काम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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