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सम्यग्दर्शन वापस आती हैं, एक वीरतापूर्ण युद्ध के बाद पिता-पुत्र का मिलाप होता है, सीता जी लज्जा से भरी हुई राज दरबार में पहुंचती हैं, उन्हें देखकर रामचन्द्र जी कह उठते हैं-"तुम बिना शपथ दिये, विना परीक्षा दिये यहाँ कहाँ ?"
सीता ने विवेक और धैर्य के साथ उत्तर दिया- 'मैं समझी थो कि आपका हृदय कोमल है पर क्या कहूँ ? आप मेरी जिस प्रकार चाहें शपथ लें।"
रामचन्द्र जी ने कहा-"अग्नि में कूदकर अपनी सचाई की परीक्षा दो।" ___बड़े भारी जलते हुए अग्निकुण्ड में सीता जी कूदने को तैयार हुई। रामचन्द्र जी लक्ष्मण से कहते हैं कि सीता जल न जाय ।"
लक्ष्मण जी ने कुछ रोषपूर्ण शब्दों में उत्तर दिया-"यह आज्ञा देते समय नहीं सोचा ? वह सती हैं, निर्दोष हैं, आज आप उनके अखण्ड शोल की महिमा देखिये।"
. उसी समय दो देव केवली की वन्दना से लौट रहे थे, उनका ध्यान सीता जी का उपसर्ग दूर करने की ओर गया। सीता जी अग्निकुण्ड में कूद पड़ी, कूदते ही सारा अग्निकुण्ड जलकुण्ड बन गया ! लहलहाता कोमल कमल सीता जी के लिये सिंहासन बन गया ! पुष्पवृष्टि के साथ "जय सीते! जय सीते !" के नाद से आकाश गूंज उठा ! उपस्थित प्रजाजन के साथ राजा राम के भा हाथ स्वयं जुड़ गये, आँखों से आनन्द के अश्रु बरस उठे, गद्गद् कण्ठ से एकाएक कह उठे-"धर्म की सदा विजय होती है, श.ल व्रत की महिमा अपार है।"
रामचन्द्र जी के अविचारित वचन सुनकर सीता जी को संसार से वैराग्य हो चुका था, पर "निःशल्यो व्रती" व्रती
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