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वर्णी-वाणी
को निःशल्य होना चाहिये | इसलिये उन्होंने दीक्षा लेने से पहले परीक्षा देना आवश्यक समझा था । परीक्षा में वह पास हो गईं। रामचन्द्र जी ने उनसे कहा - " देवि ! घर चलो, अब तक हमारा स्नेह हृदय में था पर लोक-लाज के कारण आँखों में आ गया है ।"
सीता जी ने नीरस स्वर में कहा - " नाथ ! यह संसार दुःख रूपी वृक्ष की जड़ है, अब मैं इसमें न रहूँगी। सच्चा सुख इसके त्याग में ही है ।"
रामचन्द्र जी ने बहुत कुछ कहा - "यदि मैं अपराधी हूँ तो लक्ष्मण की ओर देखो, यदि यह भी अपराधी है तो अपने बच्चों लव-कुश की ओर देखो और एक बार पुनः घर में प्रवेश करो ।" पर सीता जी अपनी दृढ़ता से च्युत नहीं हुईं। उन्होंने उसी समय केश उखाड़ कर रामचन्द्र जी के सामने फेंक दिये और जङ्गल में जाकर आर्या हो गई । यह सब काम सम्यग्दर्शन का है, यदि उन्हें अपने आत्म बल पर विश्वास न होता तो वह क्या यह सब कार्य कर सकती थीं ? कदापि नहीं !
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अब रामचन्द्र जी का विवेक देखिये जो रामचन्द्र सीता के पीछे पागल हो रहे थे, वृक्षों से पूछते थे कि क्या तुमने मेरी सीता देखी है? वह। जब तपश्चर्या में लेन थे सीता के जीव
तन्द्र ने कितने उसपर्ग किए पर वह अपने ध्यान से विचलित नहीं हुये । शुक्त ध्यान धारण कर केवल अवस्था को
प्रान हुए ।
सम्यग्दर्शन से आत्मा में प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण प्रकट होते हैं जो सम्यग्दर्शन के अविनाभावी हैं। यदि आप में यह गुण प्रकट हुये हैं तो समझ लो कि
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